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“लहजे”

 “लहजे” “उनके लहजे के क़ायल रहे हम उम्र भर क़त्ल होते रहे मगर कभी खबर ना हुई”

“रुसवा”

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 “रुसवा” “वो जलसों की ख्वाहिश, ग़मों की भीड़ में गुम हो गयी ज़ख़्म अपनों से मिले थे, शिकवा क्या किसी से करते सलीके और सुकून से जीने के हुनर ने बड़ा ग़म दिया हम भी बेतरतीबी से जीते तो शायद खुश रहते मेरे ख्यालों की मानिंद हर शिकायत की वजह होती तो ठीक था दुनिया बेवजह ही रुसवा करे तो क्या करते” (अनिल मिस्त्री)

“ग़म कितने हैं”

 “ग़म कितने हैं कि ख़त्म ही नहीं होते उम्र भर को हरे रहते हैं, दिल के ज़ख़्म दर्द के साये कभी कम ही नहीं होते” (अनिल मिस्त्री)

“जी जाने को”

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 “रोज़ निकल पड़ता हूँ ज़िंदगी आज़माने को बहुत ग़म छुपाता हूँ, थोड़ा सा मुस्कुराने को क्या करूँ आदमी रो नहीं सकता ना इसलिए बहुत सारा मर जाता हूँ, थोड़ा सा जी लेने को” (अनिल मिस्त्री)

“परवाह”

“यूँ तो हर ख़्वाहीश पूरी ही जाती है अपने नसीब से तुम मगर रूठे ना होते तो बात कुछ और थी बड़े अरमानों से महल रेत के बनाए थे किनारों पर हमनें ये जो दरिया में लहरें ना होती तो बात कुछ और थी क़लमों में भी सफ़ेदी ला ही देती है उम्र इक दिन सच्चे दिल से मिलते हमसे, तो वक़्त की सौग़ात होती हमने कभी यूँ तो परवाह ना की, किसी से जुदा होने की ये जो गर तुमसे मोहब्बत ना होती तो बात कुछ और थी” (अनिल मिस्त्री)

“क़ीमत”

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 “क्या याद भी करूँ उन खूबसूरत लम्हों को वो ज़िंदगी की किताब के दिलकश पन्नों को मुझको तो कभी भूला ही नहीं  वो सब भी जो कभी हुआ ही नहीं वो इक तरफ़ा सा अहसास जो  हंसीं था हक़ीक़त से भी ज़्यादा कहीं वो रवानियों के दौर, वो ख़्वाब ओ ख्यालों के दौर बस इक नज़र उम्र भर जी जाने काफ़ी थे तुम्हें क्या मालूम, हमने ख्यालों से तराशा था तुम्हें मेरी नज़र से तुम्हें नज़र भला आया ही कहाँ तुम्हें खबर ही नहीं के तुम कितने बेशक़ीमती थे” (अनिल मिस्त्री)

“हालात”

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 “हालात” “दिल तो भरा ही रहता है ग़मों से मगर हालात रोने नहीं देते थक के चूर हो जाता हूँ, चलते-चलते मगर ख़्वाब हैं कि सोने नहीं देते मेरी आरज़ू ही क्या रही, ये कोई अपना  ना जान सका कभी उम्र लम्बी है उम्मीदों की,बहुत अब भी  मगर ज़माने के रिवाज, जीने नहीं देते” (अनिल मिस्त्री)

“अमीर”

 “तेरी ख़्वाहीश में मै, रोज़ खर्च होता हूँ और लोग बेबाक़ कहते हैं कि  तुम कभी अमीर ना बन पाये” (अनिल मिस्त्री) (अनिल मिस्त्री)

“किरदार”

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 “किरदार” “तुम नज़रों में अपनी, मेरी इज़्ज़त रखो ना रखो मैंने किरदार को अपने, तराशना जारी रखा है माना कि बहुत मुक़ाम मुझको वक़्त पे हासिल ना हुए इतना भी काफ़ी है, मेरी ख़ातिर, कि मैंने कभी, रुकना नहीं सीखा है” (अनिल मिस्त्री)

आरज़ू

 “तेरी आरज़ू करके तो अब रोया भी नहीं जाता वक़्त अक्सर हालात बदल दिया करता हैं  मोहब्बतों के मायने तो फिर भी वो ही रहते हैं चाँद भी रात ढलते ही छिप ज़ाया करता है”

FUEL CELL आशा का आसमान

FUEL CELL आशा का आसमान  आज के समय में पेट्रोल और डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं।  हमारे देश के साथ साथ पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था और राजनीतिक दृश्य ईंधन की खपत और उसकी कीमतों के साथ तेजी से बदल जाते हैं।  यातायात और सारी व्यवस्था का आधार है ईंधन। इसलिए सरकारों का गिरना और बनना भी इन पर बहुत हद तक निर्भर करता है।  कम  से कम भारत जैसे विविधता और सामान्यजन की जीवटता भरे देश में। अगर ईंधन की कीमत बढ़ी तो हर व्यक्ति का बजट और जीवनस्तर तुरंत प्रभावित  होता है. आम जन खर्चों में कटौती और बचत के नए रास्ते ढूंढने लगते हैं, इसलिए ये  ही गंभीर विषय  बड़ा चुनौतीपूर्ण समीकरण है. हम सब जानते  हैं की समय के साथ साथ परम्परागत ईंधन के दाम लगातार बढ़ने ही हैं, इसलिए चाहे कितना भी विरोध हो उनकी कीमतों में वृद्धि होती ही रहेगी, लेकिन उससे बड़ा प्रश्न यह है की जब ये समाप्त हो जायेगा तब क्या होगा ? तब हमारी ईंधन की सारी ज़रूरतों की पूर्ती कैसे होगी ? क्योंकि जो परंपरागत ईंधन सैकड़ों या लाखो सालों में प्राकृतिक रूप से बनता है, उसे हम कुछ सदी में ही ख़त्म कर देंगे। उसके बाद क्या ? कुछ अति आदर्शवादी लोग मज़ाक में कहते ह

“रुआब”

 “मैंने देखा है  कई बार तूफ़ाँ, को पल में  आशियाँ उजाड़ते  इक दफ़ा फिर मैंने छोटा सा मकाँ बनाया है मुझको आदत नहीं सबकी हाँ में हाँ कह डालूँ ग़ुरूर ना समझना, मेरे मिज़ाज को कभी तूफ़ानों से लड़ के मैंने भी, थोड़ा सा रुआब कमाया है” (अनिल मिस्त्री)

"दर्द दिलों में पाले बैठी है ज़िंदगी "

 "बड़े दर्द दिलों  में  पाले बैठी है ज़िंदगी  बताती नहीं मगर ग़म छुपाये बैठी है ज़िंदगी  दस्तूर वफ़ा का तो है ही ग़मगीन करने का  फिर भी मगर मुस्कुराये जाती है ज़िंदगी  इक तरफ तेरे लौट आने की कोई सूरत नहीं दिखती मगर   यहाँ अपने दीवारों दर छुड़ाने  को आमदा है ज़िंदगी  कभी भूले से सूरत दिख भी जाए कहीं, मेरे कल की अगर  थोड़े से अश्क़ आँखों के किनारों से बहाये बैठी है ज़िंदगी  तू क्यूँ ना हुआ मेरा भला कैसे जानूं मै  दिन के उजालों में भी,  खुमारी में डूबी, बैठी है ज़िंदगी "

"मिज़ाज़ "

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"मौका परस्त भीड़ ज्यादा  पसंद नहीं  मुझको  ये खुदगर्ज़ी के शोर भी मुझको रास नहीं आते   दुनिया से दूर मै, तन्हाइयों को अक्सर गुनगुनाता हूँ, कलम की नोक से, कागज़ पे फिर इक ख्वाब सजाता हूँ  मुझको शौक नहीं रहा कभी भी हुकूमत  का  बस कुछ दिलों पे बेवजह राज किये जाता हूँ  बरसों हो गए मेरे ठहरे हुए कल को, अब तो   सोचता हूँ आज फिर  पुराने दोस्तों से मिल आता हूँ  बहुत समझ  लेना भी ज़िंदगी को, अच्छा नहीं  साहब  हर ख्वाब से उम्मीद का रंग उतर जाता है  और जो ना मालूम हो, आने वाले कल की हकीकत  तो दिल कहता है  आज फिर ज़िंदगी की इक खूबसूरत तस्वीर बनाता हूँ  वो जो रूठे  हैं  वो तो फिर भी मान जाते हैं  कैसे कहूँ उनसे, जिनसे दिल कभी लगा ही नहीं  उनसे भी आजकल मै मिज़ाज़ मिलाता हूँ " (अनिल मिस्त्री )

"इल्म"

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 "ये इल्म ना हुआ दौर-ऐ -तनहाई  से गुज़र कर भी  की ज़िंदगी में कोई हमसफ़र ना होगा कभी  हसरतें लिए बेदर्द ज़माने में फिर करते हैं  कि हमनवाँ कोई तो होगा कभी न कभी " (अनिल मिस्त्री )
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"मेरी ज़मीँ "  "अपने शहर के एक ख़ास इलाके में मै, अक्सर पहुँच जाता हूँ अपने आज को गुज़रे हुए कल से मिलवाता  हूँ  खुशकिस्मत हूँ ,कि मेरा आज मेरे बचपन से मिल सकता  है  एक ही जमीं पे, एक ही वक़्त , दो ज़मानें देख पाता हूँ  बोझिल साँसों को खिलते, उड़ते ख़्वाबों से रूबरू करवाता हूँ  कुछ नया तो नहीं यूँ  भी इस ज़िंदगी में  हर ख्वाब को मगर वक़्त, यादों में  बदल ही जाता है  फिर भी हर लम्हे को, संजों के रख लेता हूँ  कोई मिले तो ठीक वरना, तनहा ही निकल जाता हूँ  बढ़ती उम्र, जब खिलते बचपन औ लड़कपन से मिलती है  सच कहता हूँ, रगों में फिर से वो ही जुनूँ भर लाता  हूँ  अपनी पहली मोहब्बत को, इस मिटटी की महक में पाता हूँ  बहुत कुछ बाँटा है मैंने हमेशा इन हवाओँ से  दूर रहकर हर पल, इन यादों को दुहराया है  ये  जमीं  मुझमें  है , या मै  इस ज़मीं  पे , मालूम नहीं  मगर  आज भी ज़िंदगी के हर रंजो ग़म वहीँ उड़ा आता हूँ  बहुत खुशकिस्मत हूँ, जानता हूँ अपनी सच्ची ख्वाहिश इसलिए घूम कर भी दुनिया सारी, वापस यहीं लौट आता हूँ  अपने शहर के एक ख़ास इलाके में मै, अक्सर पहुँच जाता हूँ" (अनिल मिस्त्री)

"रब "

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"  क्यूँ  आखिर खुद को रब ही मान लेते हैं, सहारा देने वाले  बन के  नश्तर बहुत चुभाते हैं बाद में, बातें जताने वालीं  कौन मांगता है इस जहाँ में, मुश्किलें अपनी खातिर  खुशकिस्मत थे  तुम, जो जरिया बन के आये मेरे रब के लिये " (अनिल मिस्त्री )

“कुहासा”

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“थोड़ा-थोड़ा ही चलता हूँ, हल्के से कुहासे में फलक भर के आफ़ताब नसीब कहाँ कुछ धुँधली यादें ही राह दिखाती हैं सब अपनों को अब मनाना मुमकिन नहीं” (अनिल मिस्त्री)

“मोहब्बतों के रिवाज”

“ये मोहब्बतों के रिवाज भी बड़े अजीब होते हैं ना खुद ख़त्म होते हैं और ना चैन से जीने देते हैं चुरा ले जाते हैं नींदें भी निगाहों से और न देखा था जिसे कभी, उसे ज़िंदगी बना लेते हैं” (अनिल मिस्त्री)

“नुमाइशों का सफ़र”

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  “खूब देखा है हमने वक़्त की रेत को हाथों से फिसलते ज़हर बुझे लफ़्ज़ों से, अपनों को ग़ैर बनते शिकवा करें भी तो आख़िर किसका अब हम ही फिरतें हैं शीशे सी उम्मीदें लिए पत्थरों के शहर में क्या खूब चलन है ज़माने का भी आजकल इक होड़ सी मची है ज़ख़्म चढ़ाने की, और क़र्ज़ तले दबा है हर कोई, नुमाइशों के सफ़र में” (अनिल मिस्त्री)

“ख़ुदगर्ज़ हवाएँ”

 “ख़ुदगर्ज़ हवाओं के हमेशा शुक्रगुज़ार रहिये आपकी शख़्सियत के परिंदों को वो  उड़ना सिखाती हैं” (अनिल मिस्त्री)
 “नज़र उसकी आइने सी, ख़्वाब मेरे पत्थर मुहब्बत हो भी तो भला कैसे

“खारे समंदर”

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 “ दो अश्क़ बहा के वो ज़ंग जीत गए ये खारे समन्दर, हमने सीने में कब से बसाये हैं वो मुरादों के टूटने पे रो देते हैं हमने जनाजों में भी अश्क़ छिपाये हैं” (अनिल मिस्त्री)

“थोड़ी सी फ़ुर्सत”

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 “थोड़ी सी फ़ुर्सत” “थोड़ी सी फ़ुर्सत भी चाहिए शिद्धत से जीने को आख़िर खुद से मिलना-मिलाना भी ज़रूरी है कब तक भागेंगे ख़्वाहिशों की दौड़ में ज़िंदगी की तस्वीर में, सुकूं के थोड़े रँगो-आब भी ज़रूरी हैं देखा है हमने हर ख्वाहिश को अगले मोड़ पे इंतज़ार करते जाने कब ख़त्म हो जाए ये ज़िंदगी बेशक़ किश्तों में ही आयें मगर, थोड़े मुस्कुराने के सामान ज़रूरी हैं और अगर किश्तों की भी गुंजाईश ना हो फिर भी थोड़े से ख़्वाब सजाना ज़रूरी है यूँ तो ज़िंदगी बस वक़्त है, कट ही जाएगा इक दिन दिल के गुलशन में मगर, तितलियों का मँडराना ज़रूरी है” (अनिल मिस्त्री)

“बारिश”

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  “बड़ी खुश है आज  फिर शाम, सवालों की मै तुझमें और तुम मेरे ख्यालों में गुम हो कल ही सुनाए थे रंजो-ग़म हवाओं को मैंने बहुत मुमकिन है की आज फिर बारिश हो” (अनिल मिस्त्री)

“खेल”

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 “तेरे खूबसूरत खेल अब भी जारी हैं ज़िंदगी तू मुस्कुराहटें चुरा ले जाती है और मैं ग़मगीन होता नहीं” निगाहों की उदासी भी जब नज़रें धुँधला जाती हैं  ख़्वाबों की ठण्डी फुहारें छिड़कने से मै रुकता नहीं” (अनिल मिस्त्री)

“ख़्वाहिशों के आसमाँ“

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  “ख़्वाहिशों के आसमाँ में सुकूं ना तलाश कीजिए इक दिन बस चलते-चलते ख़त्म हो जाएँगे हर नए से इक न इक दिन दिल भर ही जाता है करना ही है तो, दो घड़ी बस बेमतलब दुआ कीजिए चैन की ज़िंदगी उम्र भर जी जाएँगे” (अनिल मिस्त्री)

“फ़रियाद”

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 “ तुम्हारी निगाहों के दायरे इतने भी काबिल नहीं कि हमारी मुहब्बत पहचान सकें हमने दिल से दिल की ख़्वाहीश की है ये वो सौदा नहीं जो कोई होश वाला जान सके “तेरी वफ़ा की आरज़ू में इक गुनाह रोज़ हुआ जाता है हम करते हैं फ़रियाद जब भी रब से कोई ज़ुबान पे नाम तेरा आता है” (अनिल मिस्त्री)

“क़त्ल नींदों के”

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  “बड़ी मुश्किल कर रखी ज़िंदगी इस ज़माने नें सब मिल रहा है आजकल सुकूं के सिवा क़त्ल किए जाते हैं रोज़ नींदों को ख़्वाबों की ख़ातिर हर सुबह जागना है फिर, सोए बिना” (अनिल मिस्त्री)

“अजीब”

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  “बड़ी अजीब, खूबसूरत तस्वीर है ज़िंदगी थोड़ी ग़म की लकीरें और थोड़े ख़्वाबों के रँग मुस्कुराते से चेहरे, पलकें भीगीं और आँखें नम हम तो बस चलते रहे ख़्वाबों के नशे में इक भरोसे पे की इक दिन अपना ये टूटा आशियाँ जोड़ लेंग़े अपनी कारगुज़ारी से टूटे बिखरे तिनके टूटा जो नशा तो ना रहा आशियाँ ना हम रहे हम” (अनिल मिस्त्री)

हेल्मेट

 हेल्मेट बहुत अच्छी चीज़ है सबको लगाना चाहिए हादसों से भी बचाती है और आप भरी भीड़ में भी  शीशा लगा के  जी भर के रो सकते हैं बग़ैर तमाशा बनें कौन कहता है ये बोझ बढ़ाती है सच तो ये है की ये मन के बोझ को  बिना किसी झिझक के कम करने का ज़रिया है”

"परछाई”

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"मुझको उस वक्त की हर बात याद आती है जो गिरे और उठे जो कभी राहों में साथ दबी-दबी सी इक आवाज़ आती है मै तो बढ़ता ही रहा अपनी धुन में अक्सर ज़िंदगी बस मुश्किलों भरी राह नज़र आती है खो चुका मै खुद को ना जाने कब का दिल की पनाह में छिपा है ख्याल-ऐ-रब करता है दिल फिर से चलूँ उस गली में कोई अपना नहीं आज वहाँ,  मगर हर दीवार पे अपनी परछाई नज़र आती है” (अनिल मिस्त्री)

“बहार”

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“बहार” “इक आरज़ू जो हक़ीक़त बन गयी बन के चाहत जो, दिल में बस गयी            ना मालूम वो कौन थी,              शायद बहार..... जो दिल के चमन से गुजर गयी” (अनिल मिस्त्री)

“बड़ा वक़्त हुआ”

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 “बड़ा वक़्त हुआ, फिर, तेरी याद ना आयी उजड़ते बगीचों और दरख़्तों से भी बर्बाद परिन्दों की आवाज़ ना आयी कहने वाले अपनी हदें भूलते चले गए सुनने वालों की ज़ुबान पे आह तक ना आयी तुमने ही खड़े किए थे वो तबाही के मंज़र ग़ुरूर में लिपटे, ख़ुदगर्ज़ी के तेरे, स्याह समन्दर क्यूँ कर गुज़रूँ भला आज, तेरी गली से मै फिर मुझको मालूम है, तुझको मेरी दोस्ती रास ना आयी” (अनिल मिस्त्री)

“बेअदबी”

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“ थोड़ी सी बेअदबी क्या हुई, अपने सारे, ख़फ़ा हो चले वो बात मेरे हक़ की क्या हुई, मेरे रहबर भी गुमराह हो चले भला कैसे तुम्हारी सबमें हाँ कह दे हम ये इंसाफ़ पसन्द होने की आदत में, हम तनहा हो चले तुम अनजाने ही ख़ाक कर रहे थे आशियाँ अपना चश्मे उतार कर देखना कभी अपने नज़रियों के रिश्ते लहू के भी कब के, तार-तार हो चले”

आरज़ू

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“आरज़ू” “तेरी आरज़ू में उम्र तमाम, कुछ यूँ भी गुज़र गयी कब ग़मों के मौसम आए खबर ना हुई हाँ भीगी थी कभी पलकें, तुझको याद करके  भी थोड़े से गुल मेरे बाग के मुरझाए भी थे मगर मेरे ऐतबार में कभी कमी ना हुई” इक अंदाज़ ही था उनका जिसपे हम फ़ना होते रहे सारी कायनात इक तरफ़ और मेरी बाहों की जन्नत इक तरफ़ माना कि उम्र भर को ना सही,  दो घड़ी को तो ख़ालिस मुहब्बत नसीब हुई”

“खबर”

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“जब भी आती है खबर तेरे आ जाने की मेरा चमन महक उठता है गुल खिलते हैं, हर ख़्वाब सच होता सा लगता  है बहुत मुमकिन है की भीग भी जाए ये सारी कायनात जब भी ग़म तुझे छू के गुजरता है और बड़ी बेख़बर है मेरे ग़म से ये आरज़ू तेरी जब भी याद करूँ, हर ग़म गुम हुआ जाता है कौन कहता की तुम ख़ास नहीं मेरी ख़ातिर उठते हैं ख्याल जब भी दिल में आपके दिल हमारा महसूस किये जाता है ” (अनिल मिस्त्री)

तस्वीर के हुनरमंद

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 “हमने ख़्वाहीश तो बड़ी की थी आपके आ जाने की मुक़द्दर ने मगर, बस यादों से दिल बहलवाया तुझमें गुम हो जाने की भी तमन्ना भी थी बड़ी  ज़रूरतों ने ज़िंदगी की मगर खूब सताया हम तो तेरी तस्वीर के हुनरमंद रहे उम्र भर जाने क्यूँ मगर, वक़्त ने उस तस्वीर से हर इक रँग चुराया” (अनिल मिस्त्री)

“आइनों का ख़ौफ़”

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 आइनों का ख़ौफ़ उन्हें हुआ करता है जो फ़रेब करते हैं हमने तो हमेशा निगाहें मिला के सच कहा है क़िस्से हमारे तो ये ज़माना बयाँ करेगा जुनूँ की राहों में तो हमने सिर्फ़ ग़म सहा है कौन कहता है की छोटी कोशिशें रँग नहीं लातीं अदना सा बीज ही इक न इक दिन दरख़्त बनता है” (अनिल मिस्त्री)

मगरूर

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“ बड़ी मगरूर हो गयी है, ये दुनिया आज की कम्बख़्त अश्क़ और इश्क़, दोनो बेअसर हो चले” (अनिल मिस्त्री

“मरहम”

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 “ मुझको तेरे ख्यालों से, भटका ही देता है बड़ा सौदायी है वक़्त, मरहम लगा ही देता है तुम्हें ख़ूबसूरती का गुमान था, हमें अदावत का मुहब्बत भला होती भी कैसे हो के भी याद सबकुछ, इकदिन याद बना ही देता है और हर गुनाह की मुझको सज़ा ही देता है बड़ा  सौदायी है वक़्त मरहम लगा ही देता है (अनिल मिस्त्री)

बेशक़ीमती जज़्बात

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  “बड़े बेशक़ीमती हैं जज़्बात, दिल की गहराइयों में छिपा रखे हैं सबसे ये  सस्ती सी दुनिया, जाने क्या क़ीमत लगाये कुछ मखमली खामोशियाँ भी और कुछ खूबसूरत लम्हे भी हमने  हैं सजाए  तेरी मानिंद , ख्याल भी तेरे बहुत ख़ास होते हैं कभी लबों पे ठहर जाते हैं तो कभी आँखों से बह जाते हैं ये मीठी सी धुन बनके कभी  दिल में  भी बस जाते हैं बड़ी  मशहूर है ये बीमारी दिल की इस दुनिया में, क्या बताएँ पलों के  भी इंतज़ार यूँ तो वफ़ा में, मुद्दतों से लगते हैं हमने तो जाने कितने साल तेरे इंतज़ार में बिताए अब तो हर वक़्त लगता है की,जीते नहीं बस जी रहे हैं  इक ज़माना सा हो गया, अब तो साथ मुस्कुराए” (अनिल मिस्त्री)

ग़लतफ़ामियों के दौर

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 “ग़लतफ़ामियों के दौर” ======================= “गलतफहमियों के दौर भी आते हैं मोहब्बत में  कुछ तो ख़फ़ा होने की भी अदा होती है शिकायतों के भी अपने ही मज़े है ज़िंदगी में चाँद की शक्ल भी कहाँ रोज़ एक सी होती है” (अनिल मिस्त्री)

“ख़ामोश मुस्कुराहट”

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 “इक ख़ामोश मुस्कुराहट निगाहों में समेटे हुए क्या तलाशते हो मुझमें, खुद को ये डर है कि फ़साने दिल के दिल में ही ना रह जाएँ इक बार बात ज़ुबाँ तक तो आने दो किसके ज़िक्र से इतने खुश रहते हो आजकल हमने निगाहों में आपकी अपना चेहरा देखा है वैसे तो बहुत वजहें हैं इनकार की दुनिया में इक़बार मगर मोहब्बत भी हो जाने दो तुझमें अक्स मेरे ख़्वाबों का नज़र आता है हर किसी से कहाँ मोहब्बत हो पाती है ना तलाशे फिर कभी कोई मुझको ज़माने में एक ख़्वाब सा है दिल में नींद के आग़ोश में खो जाने  को इक ख़ामोश मुस्कुराहट निगाहों में समेटे हुए क्या तलाशते हो मुझमें, खुद को (अनिल मिस्त्री)

“बारिश की धूप”

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बारिश की धूप” “अश्क़ भरे निगाहों में, और लबों पे इक भीगी सी मुस्कुराहट उसपे यूँ कनखियों से मुझको देखना  मानों बारिशों में आसमाँ से हल्की सी धूप का निकलना सुर्ख़ लब नर्म उजालों पे, और घनी सी बदलियाँ और बस तेरा मुझमें गुम हो जाना तुमसे इश्क़ हो ही जाए, तो मेरी ख़ता क्या है इक जँग सी हो रही आज होश और खुमारियों में जो सुरूर सर चढ़ ही ना जाये तो नशा क्या है तुम्हारे रूखसारों में मुस्कुराहट अटकी सी है   ना उड़ती ना बढ़ती बस ठहरी सी है जाने क्या तलाशते हो मेरी निगाहों में, शायद खुद को ऐसे में खुमारियाँ हार ही जाएँ तो मोहब्बत भी आख़िर बला क्या है” (अनिल मिस्त्री)

“शिकायत”

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 “ शिकायत तो रह ही जाती है थोड़ी सी        मुहब्बत में भी आख़िर कैसे तुम्हें भला हम रब बना लें” (अनिल मिस्त्री)

“कातिल रूहें”

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“हर खूबसूरत ख्याल बाँटा ना कीजिये सबके साथ दुनिया में हर कोई मोहब्बत के लायक नहीं होता जिस्मों में छिपे फिरती हैं कातिल रूहें कई सिर्फ़ मीठी ज़ुबान से कोई फ़रिश्ता नहीं होता” (अनिल मिस्त्री)

“बेख़बर”

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“बेख़बर” बेख़बर आइने उम्र से मेरी                   दिल शौक़ मगर परवान चढ़ते हैं          जाने कब यूँ ही गुज़र गए कश्मकश में साल कई           वो ख़्वाब मेरे जुनूँ के आज भी जवाँ फिरते हैं            कम ही थे लोग वो तब भी जो ख़यालों को अपने समझ पाते             तनहा महफ़िलों में तो हम आज भी शिरकत किया करते हैं” (अनिल मिस्त्री)

“आग़ाज़”

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“आगाज” दिल में तुम्हारी चाहत का              अजीब ये अहसास है कुछ ना होकर भी लगता है              की शायद, सब कुछ मेरे पास है चंद मुलाक़ातें, कुछ महके से ख़्वाब               एक ख़ूबसूरत सा तेरी मौजूदगी का अहसास                बेशक़ीमती ये इश्क़ का आग़ाज़ है”

“मंज़िलें”

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“मुस्कुराहट”

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“बहार”

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“बहार” “इक आरज़ू जो हक़ीक़त बन गयी बन के चाहत जो, दिल में बस गयी            ना मालूम वो कौन थी,       शायद बहार..... जो दिल के चमन से गुजर गयी” (अनिल मिस्त्री)

“इक अनकहा अनसुना फ़साना हूँ”

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“इक अनकहा अनसुना फ़साना हूँ बहुत मशहूर क़िस्सा तो नहीं ,  हाँ बस तेरे मुस्कुराने का बहाना हूँ एक रवानगी से भरा, तेज बहता दरिया था कल तक आज ख़्वाबों का आशियाना हूँ हर ठिकाने पे बस जाने के ख़्वाब देखे हमने ज़िंदगी के सफ़र में  कभी टूटती नींदो में  कभी शाम के धुँधलके में, छलकता पैमाना हूँ इक अनकहा अनसुना फ़साना हूँ” (अनिल मिस्त्री)

ख्याल

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“ ख्याल” “ख्याल तेरे बेख़याली में भी जुदा ना होते हैं आजकल हाँ हमने मोहब्बत को महसूस किया है” (अनिल मिस्त्री)

उम्र

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  “उम्र बीत गयी तमाम साथ जीते-जीते आज फ़ुर्सत में हो के क़रीब, लगता है तुम्हें  ठीक से देखा भी नहींअब तक” (अनिल मिस्त्री)

“हाँ”

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“हाँ” “हमने तो दुनिया भी बना डाली थी ख़्वाबों की, कुछ इशारों पे तुम्हारे और एक तुम थे जो मुकम्मल हाँ भी ना कह पाये” लगता है कभी, कि तुम्हें कुछ याद भी नहीं एक हम थे जो कभी हुआ ही नहीं, वो भी ना कभी भुला पाये जाने कितना तेज़ चलता है वक़्त भी और शायद तमन्ना उससे भी तेज़ लगता है जैसे कल ही की बात हो कुछ गुलाब मेरी किताबों में सूखे भी नहीं ठीक से और बाग़ की शाख़ों पे आज फिर नए गुल खिल आये बस इक चेहरा भर ही तो ना थे तुम मेरी ख़ातिर इक उम्मीद का आसमान, एक बारिश की फुहार थे जो मै थक के बैठ भी जाता छांव में जिसकी वो ठण्डा सा दरख्त भी तो थे जाने कितनी तेज़ थी वो वक़्त की  आँधियाँ की आज कोई निशाँ भी ना नज़र आये” (अनिल मिस्त्री)

“मेरे ख़्वाबों की ख़ूबसूरती”

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“ मेरे ख़्वाबों की ख़ूबसूरती” “तेरे दिल में होने का असर ही कुछ यूँ हुआ की मेरे ख़्वाबों  की ख़ूबसूरती कम ना हुई फ़ासले तो बहुत थे उनके और हमारे बीच मगर कभी मोहब्बत कम ना हुई उनका ख्याल ही इतना खूबसूरत था की ज़िंदगी जलती राहों से गुजरती रही मगर कभी कदम तो क्या, साँसे भी गर्म ना हुई” (अनिल मिस्त्री)

रिवाज

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 “तुम्हारी मोहब्बतों ने कुछ रिवाज से बना लिए आजकल दिल ना तोड़ो तो लगता ही नहीं,कि मिले भी थे कभी जाने कितनी दफ़ा मिलेमुस्कुराते हुए तुमसे  बरसती आँखों से मगर, वापस ना आए  हम, ऐसा भी होता नहीं अब कभी बड़ी आरज़ू थी, तुम्हारे साथ खिलखिलाने की काँधे पे रख के सर, ख़ामोश हो जाने की और वो पहले से वक़्त में फिर से, खो जाने की ये तो नहीं की ये रवायतें नामंज़ूर हैं हमको कभी लौट आओ वो वक़्त भी बनकर  हम मिलेंगे फिर अब भी वहीं” (अनिल मिस्त्री)

“हसरत”

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“हसरत”  “बड़ी हसरत से इंतज़ार करते हैं अपने वक़्त का लोग  उम्र वक़्त के इंतज़ार में ही कट जाती है             तेरा होना भी तो मायने रखता ही  होगा आख़िर             सिर्फ़ तस्वीरों से ही भला कहाँ बात बन पाती है              बस कोई ख्याल ही तो नहीं मोहब्बत             इक बार जो हो जाये तो फिर पहचान बन जाती है             कैसे कह सकते हैं की जो गुज़ारे ही नहीं वो पल भी याद आते हैं           और जो हुए भी नहीं वो गुजर जाते हैं              इक दफ़ा भी छू के उस रूह को जी ही लेते सालों कई लोग             हाँ अक्सर ख़्वाबों से भी मोहब्बत हो ही जाती है              ये ख्याल ही था की हम बड़े हुनरमंद रहे थे             ज़माने की बस नज़र ना पड़ी उस खूबसूरत ख़्वाब से मिलकर ही जाना     की अक्सर दुआ, हुनर से ज़्यादा असर कर जाती है” (अनिलमिस्त्री)

दिल लगा रहे

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“ "दिल लगा रहे” “कुछ तो ख़्वाहीश होगी रब की कि दुनिया में दिल लगा रहे यूँ ही नहीं वो खूबसूरत चेहरे बनाये जाता है ज़िंदगी की कश्मकश से जो कभी, दिल भर भी जाये मुस्कुरा के जीने की वजह कोई बताये जाता है” (अनिल मिस्त्री)

“ख़ैरियत”

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“ख़ैरियत” “ये सदा-ए- साज़ पसंद तो आती है, दिल को मगर दर्द-ए-सदा सुनता कौन है बहुत ख़ूबसूरत होते हैं यूँ तो ख़्वाब मगर टूटने के डर से ख़्वाब, अब बुनता कौन है उसका अक़्स दिखायी देता था किनारों से भी  और दिल करता था जिनपे आशियाँ बनाने को कभी  आज वक़्त की लहरों पे हो के सवार किनारों को भला चुनता कौन है दिल कहता है की बाँध ही लेना अश्कों के दरिया उन ख़ूबसूरत निगाहों में मुस्कुरा के क़त्ल कर देते हैं लोग आजकल, रो के भला अब ख़ैरियत पूछता कौन है” (अनिल मिस्त्री)