“रुआब”



 “मैंने देखा है  कई बार तूफ़ाँ, को पल में 

आशियाँ उजाड़ते 

इक दफ़ा फिर मैंने छोटा सा मकाँ बनाया है

मुझको आदत नहीं सबकी हाँ में हाँ कह डालूँ

ग़ुरूर ना समझना, मेरे मिज़ाज को कभी

तूफ़ानों से लड़ के मैंने भी, थोड़ा सा रुआब कमाया है”


(अनिल मिस्त्री)

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