“बारिश की धूप”
बारिश की धूप”
“अश्क़ भरे निगाहों में, और लबों पे इक भीगी सी मुस्कुराहट
उसपे यूँ कनखियों से मुझको देखना
मानों बारिशों में आसमाँ से हल्की सी धूप का निकलना
सुर्ख़ लब नर्म उजालों पे, और घनी सी बदलियाँ
और बस तेरा मुझमें गुम हो जाना
तुमसे इश्क़ हो ही जाए, तो मेरी ख़ता क्या है
इक जँग सी हो रही आज होश और खुमारियों में
जो सुरूर सर चढ़ ही ना जाये तो नशा क्या है
तुम्हारे रूखसारों में मुस्कुराहट अटकी सी है
ना उड़ती ना बढ़ती बस ठहरी सी है
जाने क्या तलाशते हो मेरी निगाहों में, शायद खुद को
ऐसे में खुमारियाँ हार ही जाएँ तो मोहब्बत भी आख़िर बला क्या है”
(अनिल मिस्त्री)
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