“परवाह”

“यूँ तो हर ख़्वाहीश पूरी ही जाती है अपने नसीब से
तुम मगर रूठे ना होते तो बात कुछ और थी

बड़े अरमानों से महल रेत के बनाए थे किनारों पर हमनें
ये जो दरिया में लहरें ना होती तो बात कुछ और थी

क़लमों में भी सफ़ेदी ला ही देती है उम्र इक दिन
सच्चे दिल से मिलते हमसे, तो वक़्त की सौग़ात होती


हमने कभी यूँ तो परवाह ना की, किसी से जुदा होने की
ये जो गर तुमसे मोहब्बत ना होती तो बात कुछ और थी”

(अनिल मिस्त्री)

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