"मेरी ज़मीँ "

 "अपने शहर के एक ख़ास इलाके में मै, अक्सर पहुँच जाता हूँ

अपने आज को गुज़रे हुए कल से मिलवाता  हूँ 

खुशकिस्मत हूँ ,कि मेरा आज मेरे बचपन से मिल सकता  है 

एक ही जमीं पे, एक ही वक़्त , दो ज़मानें देख पाता हूँ 

बोझिल साँसों को खिलते, उड़ते ख़्वाबों से रूबरू करवाता हूँ 

कुछ नया तो नहीं यूँ  भी इस ज़िंदगी में 

हर ख्वाब को मगर वक़्त, यादों में  बदल ही जाता है 

फिर भी हर लम्हे को, संजों के रख लेता हूँ 

कोई मिले तो ठीक वरना, तनहा ही निकल जाता हूँ 

बढ़ती उम्र, जब खिलते बचपन औ लड़कपन से मिलती है 

सच कहता हूँ, रगों में फिर से वो ही जुनूँ भर लाता  हूँ 

अपनी पहली मोहब्बत को, इस मिटटी की महक में पाता हूँ 

बहुत कुछ बाँटा है मैंने हमेशा इन हवाओँ से 

दूर रहकर हर पल, इन यादों को दुहराया है 

ये  जमीं  मुझमें  है , या मै  इस ज़मीं  पे , मालूम नहीं  मगर 

आज भी ज़िंदगी के हर रंजो ग़म वहीँ उड़ा आता हूँ 

बहुत खुशकिस्मत हूँ, जानता हूँ अपनी सच्ची ख्वाहिश

इसलिए घूम कर भी दुनिया सारी, वापस यहीं लौट आता हूँ 

अपने शहर के एक ख़ास इलाके में मै, अक्सर पहुँच जाता हूँ"

(अनिल मिस्त्री)

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