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“हालात”

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 “हालात” “दिल तो भरा ही रहता है ग़मों से मगर हालात रोने नहीं देते थक के चूर हो जाता हूँ, चलते-चलते मगर ख़्वाब हैं कि सोने नहीं देते मेरी आरज़ू ही क्या रही, ये कोई अपना  ना जान सका कभी उम्र लम्बी है उम्मीदों की,बहुत अब भी  मगर ज़माने के रिवाज, जीने नहीं देते” (अनिल मिस्त्री)

“अमीर”

 “तेरी ख़्वाहीश में मै, रोज़ खर्च होता हूँ और लोग बेबाक़ कहते हैं कि  तुम कभी अमीर ना बन पाये” (अनिल मिस्त्री) (अनिल मिस्त्री)

“किरदार”

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 “किरदार” “तुम नज़रों में अपनी, मेरी इज़्ज़त रखो ना रखो मैंने किरदार को अपने, तराशना जारी रखा है माना कि बहुत मुक़ाम मुझको वक़्त पे हासिल ना हुए इतना भी काफ़ी है, मेरी ख़ातिर, कि मैंने कभी, रुकना नहीं सीखा है” (अनिल मिस्त्री)

आरज़ू

 “तेरी आरज़ू करके तो अब रोया भी नहीं जाता वक़्त अक्सर हालात बदल दिया करता हैं  मोहब्बतों के मायने तो फिर भी वो ही रहते हैं चाँद भी रात ढलते ही छिप ज़ाया करता है”

FUEL CELL आशा का आसमान

FUEL CELL आशा का आसमान  आज के समय में पेट्रोल और डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं।  हमारे देश के साथ साथ पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था और राजनीतिक दृश्य ईंधन की खपत और उसकी कीमतों के साथ तेजी से बदल जाते हैं।  यातायात और सारी व्यवस्था का आधार है ईंधन। इसलिए सरकारों का गिरना और बनना भी इन पर बहुत हद तक निर्भर करता है।  कम  से कम भारत जैसे विविधता और सामान्यजन की जीवटता भरे देश में। अगर ईंधन की कीमत बढ़ी तो हर व्यक्ति का बजट और जीवनस्तर तुरंत प्रभावित  होता है. आम जन खर्चों में कटौती और बचत के नए रास्ते ढूंढने लगते हैं, इसलिए ये  ही गंभीर विषय  बड़ा चुनौतीपूर्ण समीकरण है. हम सब जानते  हैं की समय के साथ साथ परम्परागत ईंधन के दाम लगातार बढ़ने ही हैं, इसलिए चाहे कितना भी विरोध हो उनकी कीमतों में वृद्धि होती ही रहेगी, लेकिन उससे बड़ा प्रश्न यह है की जब ये समाप्त हो जायेगा तब क्या होगा ? तब हमारी ईंधन की सारी ज़रूरतों की पूर्ती कैसे होगी ? क्योंकि जो परंपरागत ईंधन सैकड़ों या लाखो सालों में प्राकृतिक रूप से बनता है, उसे हम कुछ सदी में ही ख़त्म कर देंगे। उसके बाद क्या ? कुछ अति आदर्शवादी लोग मज़ाक में कहते ह

“रुआब”

 “मैंने देखा है  कई बार तूफ़ाँ, को पल में  आशियाँ उजाड़ते  इक दफ़ा फिर मैंने छोटा सा मकाँ बनाया है मुझको आदत नहीं सबकी हाँ में हाँ कह डालूँ ग़ुरूर ना समझना, मेरे मिज़ाज को कभी तूफ़ानों से लड़ के मैंने भी, थोड़ा सा रुआब कमाया है” (अनिल मिस्त्री)

"दर्द दिलों में पाले बैठी है ज़िंदगी "

 "बड़े दर्द दिलों  में  पाले बैठी है ज़िंदगी  बताती नहीं मगर ग़म छुपाये बैठी है ज़िंदगी  दस्तूर वफ़ा का तो है ही ग़मगीन करने का  फिर भी मगर मुस्कुराये जाती है ज़िंदगी  इक तरफ तेरे लौट आने की कोई सूरत नहीं दिखती मगर   यहाँ अपने दीवारों दर छुड़ाने  को आमदा है ज़िंदगी  कभी भूले से सूरत दिख भी जाए कहीं, मेरे कल की अगर  थोड़े से अश्क़ आँखों के किनारों से बहाये बैठी है ज़िंदगी  तू क्यूँ ना हुआ मेरा भला कैसे जानूं मै  दिन के उजालों में भी,  खुमारी में डूबी, बैठी है ज़िंदगी "

"मिज़ाज़ "

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"मौका परस्त भीड़ ज्यादा  पसंद नहीं  मुझको  ये खुदगर्ज़ी के शोर भी मुझको रास नहीं आते   दुनिया से दूर मै, तन्हाइयों को अक्सर गुनगुनाता हूँ, कलम की नोक से, कागज़ पे फिर इक ख्वाब सजाता हूँ  मुझको शौक नहीं रहा कभी भी हुकूमत  का  बस कुछ दिलों पे बेवजह राज किये जाता हूँ  बरसों हो गए मेरे ठहरे हुए कल को, अब तो   सोचता हूँ आज फिर  पुराने दोस्तों से मिल आता हूँ  बहुत समझ  लेना भी ज़िंदगी को, अच्छा नहीं  साहब  हर ख्वाब से उम्मीद का रंग उतर जाता है  और जो ना मालूम हो, आने वाले कल की हकीकत  तो दिल कहता है  आज फिर ज़िंदगी की इक खूबसूरत तस्वीर बनाता हूँ  वो जो रूठे  हैं  वो तो फिर भी मान जाते हैं  कैसे कहूँ उनसे, जिनसे दिल कभी लगा ही नहीं  उनसे भी आजकल मै मिज़ाज़ मिलाता हूँ " (अनिल मिस्त्री )

"इल्म"

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 "ये इल्म ना हुआ दौर-ऐ -तनहाई  से गुज़र कर भी  की ज़िंदगी में कोई हमसफ़र ना होगा कभी  हसरतें लिए बेदर्द ज़माने में फिर करते हैं  कि हमनवाँ कोई तो होगा कभी न कभी " (अनिल मिस्त्री )
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"मेरी ज़मीँ "  "अपने शहर के एक ख़ास इलाके में मै, अक्सर पहुँच जाता हूँ अपने आज को गुज़रे हुए कल से मिलवाता  हूँ  खुशकिस्मत हूँ ,कि मेरा आज मेरे बचपन से मिल सकता  है  एक ही जमीं पे, एक ही वक़्त , दो ज़मानें देख पाता हूँ  बोझिल साँसों को खिलते, उड़ते ख़्वाबों से रूबरू करवाता हूँ  कुछ नया तो नहीं यूँ  भी इस ज़िंदगी में  हर ख्वाब को मगर वक़्त, यादों में  बदल ही जाता है  फिर भी हर लम्हे को, संजों के रख लेता हूँ  कोई मिले तो ठीक वरना, तनहा ही निकल जाता हूँ  बढ़ती उम्र, जब खिलते बचपन औ लड़कपन से मिलती है  सच कहता हूँ, रगों में फिर से वो ही जुनूँ भर लाता  हूँ  अपनी पहली मोहब्बत को, इस मिटटी की महक में पाता हूँ  बहुत कुछ बाँटा है मैंने हमेशा इन हवाओँ से  दूर रहकर हर पल, इन यादों को दुहराया है  ये  जमीं  मुझमें  है , या मै  इस ज़मीं  पे , मालूम नहीं  मगर  आज भी ज़िंदगी के हर रंजो ग़म वहीँ उड़ा आता हूँ  बहुत खुशकिस्मत हूँ, जानता हूँ अपनी सच्ची ख्वाहिश इसलिए घूम कर भी दुनिया सारी, वापस यहीं लौट आता हूँ  अपने शहर के एक ख़ास इलाके में मै, अक्सर पहुँच जाता हूँ" (अनिल मिस्त्री)

"रब "

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"  क्यूँ  आखिर खुद को रब ही मान लेते हैं, सहारा देने वाले  बन के  नश्तर बहुत चुभाते हैं बाद में, बातें जताने वालीं  कौन मांगता है इस जहाँ में, मुश्किलें अपनी खातिर  खुशकिस्मत थे  तुम, जो जरिया बन के आये मेरे रब के लिये " (अनिल मिस्त्री )

“कुहासा”

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“थोड़ा-थोड़ा ही चलता हूँ, हल्के से कुहासे में फलक भर के आफ़ताब नसीब कहाँ कुछ धुँधली यादें ही राह दिखाती हैं सब अपनों को अब मनाना मुमकिन नहीं” (अनिल मिस्त्री)