“हाँ”

“हाँ”



“हमने तो दुनिया भी बना डाली थी ख़्वाबों की, कुछ इशारों पे तुम्हारे


और एक तुम थे जो मुकम्मल हाँ भी ना कह पाये”


लगता है कभी, कि तुम्हें कुछ याद भी नहीं


एक हम थे जो कभी हुआ ही नहीं, वो भी ना कभी भुला पाये


जाने कितना तेज़ चलता है वक़्त भी


और शायद तमन्ना उससे भी तेज़


लगता है जैसे कल ही की बात हो


कुछ गुलाब मेरी किताबों में सूखे भी नहीं ठीक से


और बाग़ की शाख़ों पे आज फिर नए गुल खिल आये


बस इक चेहरा भर ही तो ना थे तुम मेरी ख़ातिर


इक उम्मीद का आसमान, एक बारिश की फुहार थे


जो मै थक के बैठ भी जाता छांव में जिसकी वो ठण्डा सा दरख्त भी तो थे


जाने कितनी तेज़ थी वो वक़्त की 


आँधियाँ की आज कोई निशाँ भी ना नज़र आये”

(अनिल मिस्त्री)

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