“नुमाइशों का सफ़र”


 “खूब देखा है हमने वक़्त की रेत को हाथों से फिसलते


ज़हर बुझे लफ़्ज़ों से, अपनों को ग़ैर बनते


शिकवा करें भी तो आख़िर किसका अब


हम ही फिरतें हैं शीशे सी उम्मीदें लिए


पत्थरों के शहर में


क्या खूब चलन है ज़माने का भी आजकल


इक होड़ सी मची है ज़ख़्म चढ़ाने की, और


क़र्ज़ तले दबा है हर कोई, नुमाइशों के सफ़र में”


(अनिल मिस्त्री)

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