“रुसवा”
“रुसवा”
“वो जलसों की ख्वाहिश, ग़मों की भीड़ में गुम हो गयी
ज़ख़्म अपनों से मिले थे, शिकवा क्या किसी से करते
सलीके और सुकून से जीने के हुनर ने बड़ा ग़म दिया
हम भी बेतरतीबी से जीते तो शायद खुश रहते
मेरे ख्यालों की मानिंद हर शिकायत की वजह होती तो ठीक था
दुनिया बेवजह ही रुसवा करे तो क्या करते”
(अनिल मिस्त्री)
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