FUEL CELL आशा का आसमान


FUEL CELL आशा का आसमान 

आज के समय में पेट्रोल और डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं।  हमारे देश के साथ साथ पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था और राजनीतिक दृश्य ईंधन की खपत और उसकी कीमतों के साथ तेजी से बदल जाते हैं।  यातायात और सारी व्यवस्था का आधार है ईंधन। इसलिए सरकारों का गिरना और बनना भी इन पर बहुत हद तक निर्भर करता है।  कम  से कम भारत जैसे विविधता और सामान्यजन की जीवटता भरे देश में। अगर ईंधन की कीमत बढ़ी तो हर व्यक्ति का बजट और जीवनस्तर तुरंत प्रभावित  होता है. आम जन खर्चों में कटौती और बचत के नए रास्ते ढूंढने लगते हैं, इसलिए ये  ही गंभीर विषय  बड़ा चुनौतीपूर्ण समीकरण है. हम सब जानते  हैं की समय के साथ साथ परम्परागत ईंधन के दाम लगातार बढ़ने ही हैं, इसलिए चाहे कितना भी विरोध हो उनकी कीमतों में वृद्धि होती ही रहेगी, लेकिन उससे बड़ा प्रश्न यह है की जब ये समाप्त हो जायेगा तब क्या होगा ? तब हमारी ईंधन की सारी ज़रूरतों की पूर्ती कैसे होगी ? क्योंकि जो परंपरागत ईंधन सैकड़ों या लाखो सालों में प्राकृतिक रूप से बनता है, उसे हम कुछ सदी में ही ख़त्म कर देंगे। उसके बाद क्या ? कुछ अति आदर्शवादी लोग मज़ाक में कहते हैं की फिर सब सायकिल चलाएंगे या सौर ऊर्जा का उपयोग करेंगे।  लेकिन यह बातें व्यवहारिकं रूप से संभव नहीं है. ऊर्जा के सभी गैर परम्परागत स्रोत या non conventional renewable स्रोत, व्यवहारिक रूप से बहुत ही चुनौतीपूर्ण हैं की वे परम्परागत ऊर्जा स्रोतों के विकल्प बन सकें। उनकी विश्वसनीयता और व्यवहारिक प्रयोग अभी भी एक प्रश्नचिन्ह हैं.

इसके अलावा दुनिया के सामने एक और गंभीर प्रश्न, है पर्यावरण का संरक्षण और लगातार गर्म होती पृथ्वी को प्रदूषण से बचाने का. खासतौर से वायु प्रदूषण से. हर साल वाहनों से निकलने वाली खतरनाक कार्बन मोनो ऑक्साइड और अन्य विषैली गैसों से ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण पृथ्वी लगातार गरम हो रही है. ये तापमान में वृद्धि कई प्रकार के अनुवांशिक जटिलताएं उत्पन्न कर रही हैं साथ ही लगातार महासागरों के स्तर में वृद्धि हो रही है. एक अनुमान के अनुसार आने वाले पचास वर्षों में पेट्रोलियम का कम  से कम  60 प्रतिशत ख़त्म हो चुका  होगा। इसके अलावा बहुत सारे तटीय शहर जैसे मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और टापूनुमा देश जैसे मालदीव, मारीशस पूरी तरह महासागर में विलीन हो चुके होंगे।  आज भी अधिकतर  देश और उनके नागरिक पर्यावरण को लेकर पूरी तरह गंभीर नहीं हैं।  हर साल भारत जैसे देश में शहरीकरण और संरचनात्मक विकास के नाम पर करोड़ों पेड़ काटे जाते हैं. ऐसे में केवल अपने डिजिटल सिगनेचर के नीचे हरा पेड़  प्रिंट कर के और सेव अर्थ लिखने से कुछ नहीं होगा। 

ये तो हुए सवाल, अब हम जवाबों की और चलते हैं. ऐसा नहीं है की संसार सोया हुआ है या कोई ऊपर लिखे चुनौती पूर्ण विषयों के बारे में कार्य नहीं कर रहा है. कार्य हो रहे हैं और बहुत व्यापक पैमाने पे हो रहे हैं. विश्व स्तर पर  हो रहे हैं. 

साल 2000 जब मै अपने इलेक्ट्रिकल ब्रांच के अंतिम सेमेस्टर की परीक्षाएं ख़त्म कर सेन्ट्रल फार्म मशीनरी टेस्टिंग एंड ट्रेनिंग सेंटर बुदनी मध्य प्रदेश में एक ट्रेनिंग कर रहा था. वो केंद्र भारत सरकार के कृषि विभाग का एशिया का सबसे बड़ा सेण्टर था, वहां भारत की सभी फार्म मशीने टेस्टिंग होने आया करती थी. वहां एक लोड कार नाम की मशीन थी जो पूरे एशिया में सिर्फ वहीँ थी. उस मशीन से ट्रैक्टर जैसे उपकरण से, वहां से साल भर का काम कुछ घंटो में करवाया जाता और फिर उसे सर्टीफाई  करके उस कंपनी को commercial production के लिए guidline दी जाती थी। ऐसे ही बहुत  सारी  वर्ल्ड क्लास मशीनें अपने कमर्शियल प्रोडक्शन से पहले वहां टेस्ट और सर्टिफाई होने के लिए आती थीं। 

वहां एक से बढ़ कर एक जानकार और अनुभवी ट्रैनर थे. ज्यादातर M-tech और Phd, उन दिनों मेरा  कारों के प्रति आकर्षण अपने चरम पर था, मै Mercedes Benz और Rolls Royce, Porche, BMW, Audi जैसी कारों के बारे में, खूब पढ़ता और आनंदित होता था. लेकिन एक सामान्य व्यक्ति जब पूछता की ऐसी luxry कारें बहुत फ्यूल खपत करती हैं, तो मुझे थोड़ा दुःख होता था, की क्या सिर्फ फ्यूल  के लिए एक शानदार तकनीक और एक मास्टर पीस को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है ?  इसी सिलसिले में मै  हमेशा auto india, motoring, overdrive ऐसी पत्रिकाओं का अच्छा खासा संग्रह रखता था. मेरे कुछ मित्र जो मैकेनिकल ब्रांच के थे, उनसे मेरी हमेशा बहस हुआ करती थी।  वो कहते की ये सब मैकेनिकल वालों के विषय हैं।  जबकि मेरे लिए कोई विषय नहीं था।  सिर्फ आकर्षण और जूनून ही सबसे बडे  विषय हुआ करते थे।  और मुझे लगता था की एक दिन ज़रूर आयेगा  जिस दिन ऑटोमोबाइल इलेक्ट्रिकल ब्रांच वालों का मुख्य विषय होगा। इसके अलावा ईंधन के रिन्यूएबल स्रोतों पे हम खूब चर्चा करते थे. हमारा  एक विषय भी था शायद तीसरे सेमेस्टर में "Non Conventional Sources Of Energy" . ऐसे में ही मैंने  एक दिन अमेरिकन "Zero Emission Project Fuel Cell" के बारे में पढ़ना शुरू किया। उन दिनों अमेरिका  और तालिबान का युद्ध कुछ समय पहले ही ख़त्म हुआ था और अमेरिका इस प्रोजेक्ट को बड़े ही जोर शोर से चला रहा था. पूरे अमेरिका  में बहुत सारे हाइड्रोजन फ्यूल स्टेशन बनाये गए थे, साथ ही दुनिया की लगभग सभी बडी ऑटो कंपनियां जैसे OPEL, Mercedez Benz, BMW, Toyota और लगभग सभी इस Fuel Cell पे काम कर रहे थे. अनेकों टेस्ट किये जा रहे थे. अगस्त 2000 की auto इंडिया पत्रिका में एक पूरा का पूरा चार पन्नों का आर्टिकल प्रकाशित हुआ था की हाइड्रोजन टैंक पे बुलेट फायर करके देखा जा रहा है की वो विस्फोट करता है या नहीं। ऐसे अनगिनत टेस्ट लगातार सभी auto मैन्युफ़ैक्चरर कर रहे थे. रूस में लगभग २००० वोल्गा टैक्सी फ्यूल सेल से चलायी जा रहीं थीं, ताकि व्यवहारिक तौर  पर उनके परम्परगत वाहनों की जगह लेने की क्या और कितनी संभावनाएं हैं. इसके अलावा फ्यूल सेल एक साधारण और तुलनात्मक रूप से सस्ती तकनीक थी. उसी पत्रिका में  लिखा था की साल २००० तक  दुनिया के लगभग हर वाहन को फ्यूल सेल चलित वाहन से विस्थापित कर  दिया जायेगा। Mercdez ना केवल अपने छोटे वाहन जैसे की लक्ज़री कार बल्कि बसों और ट्रकों को भी फ्यूल सेल से चलाने  जा रही थी. Opel की Zafira नाम की एक SUV का पूरा का पूरा टेक्निकल डाटा सचित्र उन पत्रिकाओं में छप चुका था।  मै बहुत खुश था क्योंकि मेरी बात को मेरे मैकेनिकल और ऑटोमोबाइल ब्रांच के दोस्तों के बीच साबित करने के लिए, ये सभी तथ्यात्मक आंकड़े और सबूत थे. भारत में उन दिनों IIT खड़गपुर और वाहन अनुसन्धान केंद्र औरंगाबाद ही दो ऐसी एजेंसीयाँ थीं, जिनका नाम इस विषय पर भारत में आता था. इन सभी पत्रिकाओं (magzines) के articles आज भी मेरे पास सुरक्षित रखे हुए हैं. 

फ्यूल सेल एक बहुत ही साधारण तकनीक है, और ये विडंबना के साथ-साथ हमारा दुर्भाग्य भी है, की परम्परागत IC Engine के अविष्कार से लगभग 22  साल पहले Fuel सेल का आविष्कार हो चुका था. परंतु शुद्ध व्यापारिक देशों की मुनाफाखोर प्रवृत्ति और हर नए अविष्कार को अति विशेष बताने की होड़ में अमेरिका और बाक़ी यूरोपीय देश पेट्रोल जैसे विशिष्ठ, महंगे, दुर्लभ और प्रदूषण फ़ैलाने वाले ऊर्जा  साधन की ओर  दुनिया को धकेलते चले गये । उसका परिणाम, या यूं कहें की दुष्परिणाम आज हम सभी देख रहे हैं।  Fuel Cell पहली बार 1838 में खोजा गया था और IC engine 1860 में. इसका उपयोग NASA ने अपने GEMINI 5 नाम के space मिशन में किया था।  उन दिनों मैंने इस विषय पे एक fantasy भी लिख डाली थी।  और आज भी मेरे विचार से संसार में ऊर्जा की कोई  कमी  नहीं है. कई सारी ऐसी तकनीकें हैं जिनसे संसार भर की ऊर्जा  की ज़रूरतें  पूरी की जा सकती हैं।  इनमें कुछ बहुत  ही साधारण तकनीकें मै बता सकता हूँ जिनका प्रयोग स्पेस मिशन तक में किया जाता है जैसे :

१. हवा से किसी वाहन  को शक्ति देना। इसमें हवा को किसी सिलिंडर में कंप्रेस करके continous firing करके उससे होने वाले thrust से वाहन को चलाया जाता है।

२. पानी से वाहन को चलाना।  इसमें कार्बाइड पत्थर के प्रयोग से उसमें पानी की बूँद गिरा कर एसिटिलीन गैस बनायी जाती है और उसके शक्तिशाली थ्रस्ट से वह वाहन  शानदार तरीके से चलता है।   

बेशक सुनने में ये किसी विज्ञानं परिकल्पना जैसा लगता है, मगर वास्तव में दुनिया ऐसी तकनीकों पे काम कर रही है और सफलतापूर्वक इनके fully फ़ंक्शनल prototype आज भी मौजूद हैं।  लेकिन तेल उत्पादक देशों और शुद्ध मुनाफाखोर प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों के लिए ऐसा दिखाना मजबूरी है, की परम्परागत ऊर्जा स्त्रोतों को आसानी से विस्थापित नहीं किया जा सकता, अगर करें भी तो भी कीमतें किसी भी हाल में कम नहीं हो सकतीं।  एक ताज़ा रिपोर्ट के  हिसाब से जो की मैंने खुद Discovry channel के एक कार्यक्रम में देखी थी, लगभग २५० K.M के फ्यूल cell car का fuel का खर्च केवल 7 डॉलर आता है।  

फ्यूल सेल में बहुत ही साधारण से ग्रिड में एक ओर  से हाइड्रोजन प्रवाहित की जाती है, जो की धन आवेश (प्लस चार्ज) देती है. ग्रिड के दूसरी ओर ऑक्सीजन प्रवाहित की जाती है जो की ऋण आवेश (माइनस चार्ज ) देती है. ये ऑक्सीजन वायुमंडलीय हवा से एक कनवर्टर द्वारा फ़िल्टर करके एक अलग सिलिंडर में भर ली जाती है। जब तक दोनों गैसों का प्रवाह  बना रहता है, ग्रिड में विद्युत् (करंट)  प्रवाहित होती रहती है।  इसमें कुछ भी जलता या विस्फोट नहीं होता जैसा की साधारण वाहनों में होता है।  साथ ही इसमें कोई धुँआ भी नहीं निकलता। जब fuel यानी hydrogen ख़त्म हो जाएगी आप उसे फिर fuel station पर भरवा के अपने वाहन को आगे जाने के लिए तैयार कर सकते हैं । ये बिल्कुल परम्परागत वाहनों की तरह ही होगा बस आपके fuel या ईंधन का नाम पेट्रोल की जगह compressed हाइड्रोजन हो जाएगा. fuel cell  ग्रिड के बीच में NaoH का chemical मेम्ब्रेन, उत्प्रेरक (catalyst) का काम करता है।  इस पूरी प्रक्रिया में शुद्ध पानी H2O byproduct के रूप में मिलता है जिसे इस engine को ठंडा करने के काम में लाया जाता है।  इसलिए अमेरिका ने इसका नाम "Zero Emission Project" रखा था. ऐसे वाहनों में silencer नाम का पार्ट लुप्त हो चुका होता है।  दोनों गैसें  लगातार recycled होती रहती हैं, इसलिए इसकी दक्षता (efficiency) भी बहुत ज्यादा होती है. और इससे कोई भी प्रदूषण नहीं होता। देखा जाए तो ये बेहद ही शानदार तकनीक है और तुलनातमक रूप से पेट्रोल या डीजल से बहुत सस्ती भी है।  आज जब २२ साल  से मै बदलती दुनिया और उसकी बदलती ऊर्जा आवश्यकताओं को भली  भांति देख रहा हूँ, तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता है की आखिर अब तक ये तकनीक पूरी तरह  क्यों नहीं अपनायी गयी ? ना तो इसमें  बैटरी चार्जिंग का झंझट है और ना ही चार्जिंग स्टेशन बनाये जाने का।  ये बहुत ही दक्ष और सस्ती तकनीक है, साथ ही ये परम्परागत वाहनों को आसानी से विस्थापित (replace ) कर सकती है। जहाँ तक मेरी जानकारी और ज्ञान है फ्यूल सेल तकनीक में कुछ समस्याएँ हैं जैसे की हाइड्रोजन का भण्डारण जिस टैंक में किया जाता है उसमे कुछ समय बाद दरारें पड़ने लगती हैं और इसके लिए बहुत ही कम  तापमान पर इसका भण्डारण किया जाता है।  लेकिन ये समस्याएं आज के युग में बहुत ही साधारण हैं।  जिन्हें बहुत सारे नैनो कम्पोज़िट पदार्थों से हल किया जा सकता है।  फिर भी पता नहीं क्यों जिस गति से इस तकनीक का विस्तार और इम्प्रूवमेंट होना चाहिए था वो आज 22 साल बाद भी नहीं हो पाया। और पता नहीं किन कारणों से टेस्ला जैसी शानदार इनोवेशन वाली कंपनियां इसे फ्यूल सेल की जगह "Fool Cell " कह रहीं हैं ?

 आज लगभग   हर छोटे बड़े ऑटोमेकर इलेक्ट्रिक वाहन बना रहे हैं, मगर उनमे चार्जिंग की असुविधा और विश्वसनीयता की भारी कमी के साथ बहुत ज्यादा महंगा होना बिलकुल भी वैकल्पिक रूप से परमपरागत वाहनों को विस्थापित करने वाला नहीं लगता। मेरी नज़र में ये सब वाहन और तकनीकें अभी, अपनी शिशु अवस्था में हैं, ये सिर्फ़ प्रयोग कर रहे हैं और उसमें भी मुनाफ़ा कमा रहे हैं ।  साथ ही एक बैटरी वाले दो पहिया वाहन को लगभग २ लाख की  कीमत में , सिर्फ ये दिखा कर बेचना की इसमें पेट्रोल नहीं लगता, बिलकुल ऐसा है जैसे किसी NGO को शुरू करने से पहले ही सरकारी अनुदान का सारा हिसाब कर लेना। क्योंकि वो NGO वास्तव में अपने समाजसेवा के उद्देश्य के लिए नहीं बल्कि मुनाफा कमाने के लिए ही खोला जा रहा है।  ठीक इसी तरह भले ही आज भारत में Tata और बाकी ऑटो कंपनियां इलेक्ट्रिक वाहन जोर शोर से बना रहीं हैं मगर वो किसी भी तरह से आम लोगों की परंपरागत वाहनों की समस्यांओ का सही विकल्प प्रस्तुत नहीं करती।  भले ही हम कुछ ज्यादा कीमत ईंधन पे दे सकते हैं लेकिन विश्वसनीयता से समझौता तकनीकी रूप से एक वाहन के लिए बिलकुल भी नहीं कर सकते।  इसलिए मेरे व्यक्तिगत विचार से Fuel Cell जैसी technology को adopted technology बनाने की दिशा में काम करना चाहिये, ना की समय और संसाधनों को विपरीत दिशा में ले जाना चाहिए।  क्योंकि हर इंजीनियर और तकनीकी विचार वाला व्यक्ति ये जानता और मानता है की तकनीकी रूप से सब कुछ संभव है।  ये बात और है की वो सही मायनों में चाही जाने वाली सस्ती तकनीक,  जिसकी दुनिया को ज़रूरत है वो शायद आज नहीं , कभी और दुनिया के सामने आएगी।  लेकिन तब तक दुनिया और पर्यावरण में खतरनाक परिवर्तन हो चुके होंगें।  

(ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं )

(अनिल मिस्त्री )












टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

"बेशरम का फूल "

मुद्दत