“बड़ा वक़्त हुआ”


 “बड़ा वक़्त हुआ, फिर, तेरी याद ना आयी

उजड़ते बगीचों और दरख़्तों से भी

बर्बाद परिन्दों की आवाज़ ना आयी

कहने वाले अपनी हदें भूलते चले गए

सुनने वालों की ज़ुबान पे आह तक ना आयी

तुमने ही खड़े किए थे वो तबाही के मंज़र

ग़ुरूर में लिपटे, ख़ुदगर्ज़ी के तेरे, स्याह समन्दर

क्यूँ कर गुज़रूँ भला आज, तेरी गली से मै फिर

मुझको मालूम है, तुझको मेरी दोस्ती रास ना आयी”


(अनिल मिस्त्री)




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