“जी जाने को”


 “रोज़ निकल पड़ता हूँ ज़िंदगी आज़माने को

बहुत ग़म छुपाता हूँ, थोड़ा सा मुस्कुराने को

क्या करूँ आदमी रो नहीं सकता ना

इसलिए

बहुत सारा मर जाता हूँ, थोड़ा सा जी लेने को”

(अनिल मिस्त्री)


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