"परछाई”
"मुझको उस वक्त की हर बात याद आती है
जो गिरे और उठे जो कभी राहों में साथ
दबी-दबी सी इक आवाज़ आती है
मै तो बढ़ता ही रहा अपनी धुन में अक्सर
ज़िंदगी बस मुश्किलों भरी राह नज़र आती है
खो चुका मै खुद को ना जाने कब का
दिल की पनाह में छिपा है ख्याल-ऐ-रब
करता है दिल फिर से चलूँ उस गली में
कोई अपना नहीं आज वहाँ,
मगर हर दीवार पे अपनी परछाई
नज़र आती है”
(अनिल मिस्त्री)
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