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“मोहब्बतों के रिवाज”

“ये मोहब्बतों के रिवाज भी बड़े अजीब होते हैं ना खुद ख़त्म होते हैं और ना चैन से जीने देते हैं चुरा ले जाते हैं नींदें भी निगाहों से और न देखा था जिसे कभी, उसे ज़िंदगी बना लेते हैं” (अनिल मिस्त्री)

“नुमाइशों का सफ़र”

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  “खूब देखा है हमने वक़्त की रेत को हाथों से फिसलते ज़हर बुझे लफ़्ज़ों से, अपनों को ग़ैर बनते शिकवा करें भी तो आख़िर किसका अब हम ही फिरतें हैं शीशे सी उम्मीदें लिए पत्थरों के शहर में क्या खूब चलन है ज़माने का भी आजकल इक होड़ सी मची है ज़ख़्म चढ़ाने की, और क़र्ज़ तले दबा है हर कोई, नुमाइशों के सफ़र में” (अनिल मिस्त्री)

“ख़ुदगर्ज़ हवाएँ”

 “ख़ुदगर्ज़ हवाओं के हमेशा शुक्रगुज़ार रहिये आपकी शख़्सियत के परिंदों को वो  उड़ना सिखाती हैं” (अनिल मिस्त्री)
 “नज़र उसकी आइने सी, ख़्वाब मेरे पत्थर मुहब्बत हो भी तो भला कैसे

“खारे समंदर”

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 “ दो अश्क़ बहा के वो ज़ंग जीत गए ये खारे समन्दर, हमने सीने में कब से बसाये हैं वो मुरादों के टूटने पे रो देते हैं हमने जनाजों में भी अश्क़ छिपाये हैं” (अनिल मिस्त्री)

“थोड़ी सी फ़ुर्सत”

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 “थोड़ी सी फ़ुर्सत” “थोड़ी सी फ़ुर्सत भी चाहिए शिद्धत से जीने को आख़िर खुद से मिलना-मिलाना भी ज़रूरी है कब तक भागेंगे ख़्वाहिशों की दौड़ में ज़िंदगी की तस्वीर में, सुकूं के थोड़े रँगो-आब भी ज़रूरी हैं देखा है हमने हर ख्वाहिश को अगले मोड़ पे इंतज़ार करते जाने कब ख़त्म हो जाए ये ज़िंदगी बेशक़ किश्तों में ही आयें मगर, थोड़े मुस्कुराने के सामान ज़रूरी हैं और अगर किश्तों की भी गुंजाईश ना हो फिर भी थोड़े से ख़्वाब सजाना ज़रूरी है यूँ तो ज़िंदगी बस वक़्त है, कट ही जाएगा इक दिन दिल के गुलशन में मगर, तितलियों का मँडराना ज़रूरी है” (अनिल मिस्त्री)

“बारिश”

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  “बड़ी खुश है आज  फिर शाम, सवालों की मै तुझमें और तुम मेरे ख्यालों में गुम हो कल ही सुनाए थे रंजो-ग़म हवाओं को मैंने बहुत मुमकिन है की आज फिर बारिश हो” (अनिल मिस्त्री)

“खेल”

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 “तेरे खूबसूरत खेल अब भी जारी हैं ज़िंदगी तू मुस्कुराहटें चुरा ले जाती है और मैं ग़मगीन होता नहीं” निगाहों की उदासी भी जब नज़रें धुँधला जाती हैं  ख़्वाबों की ठण्डी फुहारें छिड़कने से मै रुकता नहीं” (अनिल मिस्त्री)

“ख़्वाहिशों के आसमाँ“

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  “ख़्वाहिशों के आसमाँ में सुकूं ना तलाश कीजिए इक दिन बस चलते-चलते ख़त्म हो जाएँगे हर नए से इक न इक दिन दिल भर ही जाता है करना ही है तो, दो घड़ी बस बेमतलब दुआ कीजिए चैन की ज़िंदगी उम्र भर जी जाएँगे” (अनिल मिस्त्री)

“फ़रियाद”

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 “ तुम्हारी निगाहों के दायरे इतने भी काबिल नहीं कि हमारी मुहब्बत पहचान सकें हमने दिल से दिल की ख़्वाहीश की है ये वो सौदा नहीं जो कोई होश वाला जान सके “तेरी वफ़ा की आरज़ू में इक गुनाह रोज़ हुआ जाता है हम करते हैं फ़रियाद जब भी रब से कोई ज़ुबान पे नाम तेरा आता है” (अनिल मिस्त्री)

“क़त्ल नींदों के”

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  “बड़ी मुश्किल कर रखी ज़िंदगी इस ज़माने नें सब मिल रहा है आजकल सुकूं के सिवा क़त्ल किए जाते हैं रोज़ नींदों को ख़्वाबों की ख़ातिर हर सुबह जागना है फिर, सोए बिना” (अनिल मिस्त्री)

“अजीब”

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  “बड़ी अजीब, खूबसूरत तस्वीर है ज़िंदगी थोड़ी ग़म की लकीरें और थोड़े ख़्वाबों के रँग मुस्कुराते से चेहरे, पलकें भीगीं और आँखें नम हम तो बस चलते रहे ख़्वाबों के नशे में इक भरोसे पे की इक दिन अपना ये टूटा आशियाँ जोड़ लेंग़े अपनी कारगुज़ारी से टूटे बिखरे तिनके टूटा जो नशा तो ना रहा आशियाँ ना हम रहे हम” (अनिल मिस्त्री)

हेल्मेट

 हेल्मेट बहुत अच्छी चीज़ है सबको लगाना चाहिए हादसों से भी बचाती है और आप भरी भीड़ में भी  शीशा लगा के  जी भर के रो सकते हैं बग़ैर तमाशा बनें कौन कहता है ये बोझ बढ़ाती है सच तो ये है की ये मन के बोझ को  बिना किसी झिझक के कम करने का ज़रिया है”

"परछाई”

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"मुझको उस वक्त की हर बात याद आती है जो गिरे और उठे जो कभी राहों में साथ दबी-दबी सी इक आवाज़ आती है मै तो बढ़ता ही रहा अपनी धुन में अक्सर ज़िंदगी बस मुश्किलों भरी राह नज़र आती है खो चुका मै खुद को ना जाने कब का दिल की पनाह में छिपा है ख्याल-ऐ-रब करता है दिल फिर से चलूँ उस गली में कोई अपना नहीं आज वहाँ,  मगर हर दीवार पे अपनी परछाई नज़र आती है” (अनिल मिस्त्री)

“बहार”

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“बहार” “इक आरज़ू जो हक़ीक़त बन गयी बन के चाहत जो, दिल में बस गयी            ना मालूम वो कौन थी,              शायद बहार..... जो दिल के चमन से गुजर गयी” (अनिल मिस्त्री)

“बड़ा वक़्त हुआ”

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 “बड़ा वक़्त हुआ, फिर, तेरी याद ना आयी उजड़ते बगीचों और दरख़्तों से भी बर्बाद परिन्दों की आवाज़ ना आयी कहने वाले अपनी हदें भूलते चले गए सुनने वालों की ज़ुबान पे आह तक ना आयी तुमने ही खड़े किए थे वो तबाही के मंज़र ग़ुरूर में लिपटे, ख़ुदगर्ज़ी के तेरे, स्याह समन्दर क्यूँ कर गुज़रूँ भला आज, तेरी गली से मै फिर मुझको मालूम है, तुझको मेरी दोस्ती रास ना आयी” (अनिल मिस्त्री)

“बेअदबी”

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“ थोड़ी सी बेअदबी क्या हुई, अपने सारे, ख़फ़ा हो चले वो बात मेरे हक़ की क्या हुई, मेरे रहबर भी गुमराह हो चले भला कैसे तुम्हारी सबमें हाँ कह दे हम ये इंसाफ़ पसन्द होने की आदत में, हम तनहा हो चले तुम अनजाने ही ख़ाक कर रहे थे आशियाँ अपना चश्मे उतार कर देखना कभी अपने नज़रियों के रिश्ते लहू के भी कब के, तार-तार हो चले”

आरज़ू

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“आरज़ू” “तेरी आरज़ू में उम्र तमाम, कुछ यूँ भी गुज़र गयी कब ग़मों के मौसम आए खबर ना हुई हाँ भीगी थी कभी पलकें, तुझको याद करके  भी थोड़े से गुल मेरे बाग के मुरझाए भी थे मगर मेरे ऐतबार में कभी कमी ना हुई” इक अंदाज़ ही था उनका जिसपे हम फ़ना होते रहे सारी कायनात इक तरफ़ और मेरी बाहों की जन्नत इक तरफ़ माना कि उम्र भर को ना सही,  दो घड़ी को तो ख़ालिस मुहब्बत नसीब हुई”

“खबर”

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“जब भी आती है खबर तेरे आ जाने की मेरा चमन महक उठता है गुल खिलते हैं, हर ख़्वाब सच होता सा लगता  है बहुत मुमकिन है की भीग भी जाए ये सारी कायनात जब भी ग़म तुझे छू के गुजरता है और बड़ी बेख़बर है मेरे ग़म से ये आरज़ू तेरी जब भी याद करूँ, हर ग़म गुम हुआ जाता है कौन कहता की तुम ख़ास नहीं मेरी ख़ातिर उठते हैं ख्याल जब भी दिल में आपके दिल हमारा महसूस किये जाता है ” (अनिल मिस्त्री)

तस्वीर के हुनरमंद

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 “हमने ख़्वाहीश तो बड़ी की थी आपके आ जाने की मुक़द्दर ने मगर, बस यादों से दिल बहलवाया तुझमें गुम हो जाने की भी तमन्ना भी थी बड़ी  ज़रूरतों ने ज़िंदगी की मगर खूब सताया हम तो तेरी तस्वीर के हुनरमंद रहे उम्र भर जाने क्यूँ मगर, वक़्त ने उस तस्वीर से हर इक रँग चुराया” (अनिल मिस्त्री)

“आइनों का ख़ौफ़”

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 आइनों का ख़ौफ़ उन्हें हुआ करता है जो फ़रेब करते हैं हमने तो हमेशा निगाहें मिला के सच कहा है क़िस्से हमारे तो ये ज़माना बयाँ करेगा जुनूँ की राहों में तो हमने सिर्फ़ ग़म सहा है कौन कहता है की छोटी कोशिशें रँग नहीं लातीं अदना सा बीज ही इक न इक दिन दरख़्त बनता है” (अनिल मिस्त्री)

मगरूर

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“ बड़ी मगरूर हो गयी है, ये दुनिया आज की कम्बख़्त अश्क़ और इश्क़, दोनो बेअसर हो चले” (अनिल मिस्त्री

“मरहम”

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 “ मुझको तेरे ख्यालों से, भटका ही देता है बड़ा सौदायी है वक़्त, मरहम लगा ही देता है तुम्हें ख़ूबसूरती का गुमान था, हमें अदावत का मुहब्बत भला होती भी कैसे हो के भी याद सबकुछ, इकदिन याद बना ही देता है और हर गुनाह की मुझको सज़ा ही देता है बड़ा  सौदायी है वक़्त मरहम लगा ही देता है (अनिल मिस्त्री)