“ख़ैरियत”


“ख़ैरियत”

“ये सदा-ए- साज़ पसंद तो आती है, दिल को मगर

दर्द-ए-सदा सुनता कौन है

बहुत ख़ूबसूरत होते हैं यूँ तो ख़्वाब

मगर

टूटने के डर से ख़्वाब, अब बुनता कौन है

उसका अक़्स दिखायी देता था किनारों से भी 

और दिल करता था जिनपे आशियाँ बनाने को कभी 

आज वक़्त की लहरों पे हो के सवार

किनारों को भला चुनता कौन है

दिल कहता है की बाँध ही लेना अश्कों के दरिया

उन ख़ूबसूरत निगाहों में

मुस्कुरा के क़त्ल कर देते हैं लोग आजकल, रो के भला अब

ख़ैरियत पूछता कौन है”

(अनिल मिस्त्री)

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