"मिज़ाज़ "
"मौका परस्त भीड़ ज्यादा पसंद नहीं मुझको
ये खुदगर्ज़ी के शोर भी मुझको रास नहीं आते
दुनिया से दूर मै, तन्हाइयों को अक्सर गुनगुनाता हूँ,
कलम की नोक से, कागज़ पे फिर इक ख्वाब सजाता हूँ
मुझको शौक नहीं रहा कभी भी हुकूमत का
बस कुछ दिलों पे बेवजह राज किये जाता हूँ
बरसों हो गए मेरे ठहरे हुए कल को, अब तो
सोचता हूँ आज फिर पुराने दोस्तों से मिल आता हूँ
बहुत समझ लेना भी ज़िंदगी को, अच्छा नहीं साहब
हर ख्वाब से उम्मीद का रंग उतर जाता है
और जो ना मालूम हो, आने वाले कल की हकीकत
तो दिल कहता है
आज फिर ज़िंदगी की इक खूबसूरत तस्वीर बनाता हूँ
वो जो रूठे हैं वो तो फिर भी मान जाते हैं
कैसे कहूँ उनसे, जिनसे दिल कभी लगा ही नहीं
उनसे भी आजकल मै मिज़ाज़ मिलाता हूँ "
(अनिल मिस्त्री )
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