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“जी जाने को”

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 “रोज़ निकल पड़ता हूँ ज़िंदगी आज़माने को बहुत ग़म छुपाता हूँ, थोड़ा सा मुस्कुराने को क्या करूँ आदमी रो नहीं सकता ना इसलिए बहुत सारा मर जाता हूँ, थोड़ा सा जी लेने को” (अनिल मिस्त्री)

“परवाह”

“यूँ तो हर ख़्वाहीश पूरी ही जाती है अपने नसीब से तुम मगर रूठे ना होते तो बात कुछ और थी बड़े अरमानों से महल रेत के बनाए थे किनारों पर हमनें ये जो दरिया में लहरें ना होती तो बात कुछ और थी क़लमों में भी सफ़ेदी ला ही देती है उम्र इक दिन सच्चे दिल से मिलते हमसे, तो वक़्त की सौग़ात होती हमने कभी यूँ तो परवाह ना की, किसी से जुदा होने की ये जो गर तुमसे मोहब्बत ना होती तो बात कुछ और थी” (अनिल मिस्त्री)

“क़ीमत”

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 “क्या याद भी करूँ उन खूबसूरत लम्हों को वो ज़िंदगी की किताब के दिलकश पन्नों को मुझको तो कभी भूला ही नहीं  वो सब भी जो कभी हुआ ही नहीं वो इक तरफ़ा सा अहसास जो  हंसीं था हक़ीक़त से भी ज़्यादा कहीं वो रवानियों के दौर, वो ख़्वाब ओ ख्यालों के दौर बस इक नज़र उम्र भर जी जाने काफ़ी थे तुम्हें क्या मालूम, हमने ख्यालों से तराशा था तुम्हें मेरी नज़र से तुम्हें नज़र भला आया ही कहाँ तुम्हें खबर ही नहीं के तुम कितने बेशक़ीमती थे” (अनिल मिस्त्री)