इक ख़्वाब ही तो था




 “इक ख़्वाब ही तो था”


“इक ख़्वाब ही तो था की साथ तेरे इक आशियाँ बनाने का

खो के तुझमें, दुनिया को भूल जाने का

वो इम्तिहान भी कैसा अजीब रहा मगर उस वक़्त

तूफ़ाँ से तो बचा भी लेते कश्ती अपनी हम भी

कमबख़्त तेरा रूठ जाना ही डुबा गया

यूँ तो छूट कर जज़्बातों की गिरफ़्त से निकल ही जाते हैं लोग

मगर फिर भी निशाँ रह जाता है दिल में हँसी यादों का

वो तुझमें मेरा अक्स भी दिख ही जाता था यूँ भी

इक इरादा था फिर भी साथ तेरेउम्र भर जी जाने का

बहुत सर्द था मौसम उस शाम मेरे दिल की वादियों का

बस वो नज़रिया ना बन पाया फिर से मिलने की गर्मजोशी का

सच है की

इक ख़्वाब ही तो था साथ तेरे इक आशियाँ बनाने का

खो के तुझमें दुनियाँ को भूल जाने का”

(अनिल मिस्त्री)

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