बेवजह


बेवजह 

“बेवजह खामोशी भी, खूबसूरत हुआ करती है

तुम मानो या ना मानो अक्सर क़बूल हुई दुआ सी लगती है

तेरे मुश्किल से मुस्कुराने की वजह तो मालूम नहीं मुझको

हाँ मुझमें तेरे गुम हो  जाने की वजह सी लगती है

अक्सर बारिशों में गुलाब भीग के और हसीं हो जाते हैं

लंबी तपिश के बाद भीगी सी वादी खूबसूरत ही लगती है

यूँ तो अक्स मेरे ख़्वाबों का मिलता है हल्का सा तुझमें भी

जाने क्यूँ मगर फिर भी तुझमें इक पूरी नज़्म सी दिखती है

बेवजह तो मै यूँ भीनहीं फिरता वीरानों में

खुद से मुलाक़ात मेरी साथ तेरे और भी हंसी लगती है

ये तेरा रूठ जाना भी मंज़ूर मुझको

मखमली खामोशियों में निगाहें दिलों के हाल बयाँ ही करती हैं

बेवजह खामोशी भी ख़ूबसूरत लगती है “
(अनिल मिस्त्री)

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