क़िस्सा

क़ि


स्सा

“क़िस्सा तेरी नाकामियों का गुज़रा चला जाता है

बढ़ा चल मुसाफ़िर वक़्त तुझसे आगे निकला जाता है

वो तेरी नदानियाँ तो याद भी नहीं किसी को

चलता चल गिरते उठते, तुझको तेरा ख़्वाब बुलाता है

शामियानों की ख़्वाहीश ना कर,

फ़ाक़ामस्ती के भी ग़म ना कर 

ज़ख़्मों के अँधेरे छिपा ले दिल में, मुस्कुरहटों के चिराग़ रौशन कर


होगा इक ना इक दिन जलसा तेरे भी नाम का 

बस तू बढ़ता चल


काँटों के दर्द भुलाता चल यूँ ही


 फूलों की रहगुज़र का तू वारिस हुआ जाता है


बढ़ा चल मुसाफ़िर वक़्त तुझसे आगे निकला जाता है”

(अनिल मिस्त्री)

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