" हूर "

"मुझे नही मालूम वो क्या करती है ? क्यों करती है? उसकी क्या मजबूरी है? और वो कौन है ? मगर उसमे बहुत सी बातें ऐसी है जो उसे कुछ अलग कुछ जुदा करती है, बाकी दुनिया से । बचपन में किस्से कहानियों में पढ़ा करता था की , शहज़ादे जब शिकार पे निकला करते थे , या कहीं ज़ंग लड़ने जाया करते तो कहीं वीरानो में उन्हें उनकी हूर मिल जाया करती थी। में शहजादा तो नही , मगर ज़ंग रोज़ लड़ता हूँ , और वीरानो में अपनी हूर, या अप्सरा को जाने कितने बरसों से तलाश कर रहा हूँ । आज एक रेस्टोरेंट में वो मुझको मिल गई। गजब की मासूमियत, ऐसी की शायद चंगेज़ खान भी अपनी गर्दन खुशी से उसकी खातिर कटवा लेता। चेहरे की रंगत ऐसी मानो एक कप दूध में , एक चुटकी सिन्दूरी रंग मिला दिया हो। पतले-पतले होठ , बिल्कुल गुलाब की तरह, हलके से सुर्ख गालों पे पसीने की झिलमिलाती बूँदें , आँखें ऐसी की लगे ज्यादा करीब आए, तो बस खरोच लग ही जाए। नाक नक्श फुर्सत से तराशे, किसी से कोई चाहत नही , मानो एक हूर जन्नत से जमीन पर आ गिरी हो , गलती से। ना कोई बनाव , नाकोई ज्यादा श्रृंगार , बस सीधी निगाहों से दिल में उतरने वाली तस्वीर , मानो किसी कलकार की कल्पना , हकीकत बन कर सामने खड़ी हो गई हो। और कह रही हो "येस सर "।

उस भीड़ में अक्सर घंटो बैठ कर में उसे निहारा करता था , बहुत कुछ ऐसी कल्पनाये किया करता जो पता नही कभी हकीकत बनती भी या नही। मगर हर रोज़ मेट्रो ट्रेन पकड़ के जाना और फ़िर उस रेस्टोरेंट में बैठ कर घंटो उसे देखना मेरा काम बन गया था। तरह तरह की बातें सोचा करता था, पता नही ये कौन है ? शादी शुदा है या फ़िर नही ? पता नही मेरे बारे में क्या सोचती है? उसकी नज़रों में एक रेस्टारेंट का कस्टमर ही हूँ, या कभी उसने मुझे देखने की भी कोशिश की है ? बस अनगिनत सवालों में उलझा मै उसकी तरफ़ ही देखा करता था । और अपने कागजी आस्मां पे कलम के साथ उड़ान भरा करता था । सच कहू तो मुझे अच्छा नही लगता था की वो वहां काम करती थी , मगर उस वक्त मै उससे क्या कहता ? दिल तो चाहता था की ये चाँद बस मेरे हथेली में सिमट कर , मेरी तकदीर बन जाए । वो अक्सर थक जाया करती थी , उसकी थकान उसके माथे पे और गालों पे पसीने की बूंदों के रूप में छलकने लगता था। जब उस वक्त मै उसे देखता तो दिल करता की बस उसे बाहों में उठा लूँ । मगर उस भरी भीड़ वाली जगह पर , उसकी उस थकान को देखने वाला कोई नही था, मेरा बस चलता तो मै उस रेस्टोरेंट में शायद नौकरी भी कर लेता उसकी खातिर , मगर मेरी मजबूरियां और मेरी पुरानी नौकरी , और उसका समय मुझे इसकी इजाज़त नही देता था। मै अक्सर इस बात को बड़ा परेशान रहा हूँ की , मुझे कभी भी आज़ादी से उड़ान भरने मिला ही नही , कोई ना कोई मजबूरी मुझे मेरी तरह पूरी तरह से जीने नही देती। खैर शायद ऐसा सबके साथ होता है। कभी कभार मै सोचता की मै पागल ही हूँ जो इस बनी बनाई व्यावसायिक गुडिया की खातिर रोज़ पैसे पानी में डालने चले आता हूँ। मगर जो भी उस रेस्टोरेंट की पॉलिसी रही हो , वो शर्बते-दीदार सचमुच तारीफ-ऐ काबिल था और बेशकीमती भी।
to be continue.............

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