"दास्ताँ"
“दास्ताँ” “मै खुद में अपनी इक पूरी दास्ताँ हूँ थोड़ा सा पूरा और कुछ अधूरा सा अरमाँ हूँ अपनी ग़ैरत के शीशे लिए फिरता हूँ पत्थरों के शहरों में अपने ख़्वाबों की जमीं पे, थोड़ा सा क़ाबिज़, थोड़ा बेदख़ल हूँ थोड़ी सी रौशन सहर, थोड़ी सुर्ख़ शाम हूँ गिरता जो अपने मिज़ाज में और उठता अपने हिसाब से ऐसी मौजों का सैलाब हूँ कभी सर्द बर्फ़ आ बियावान, कभी सब्ज़बाग़ सा मौसम कभी पूरा हुआ ख़्वाब, कभी अधूरा अरमान हूँ दुनिया शायद नहीं समझती, मगर मै भी इंसान हूँ मै खुद में अपनी एक पूरी दास्ताँ हूँ” (अनिल मिस्त्री)