"सूरत-ऐ-हाल "

क्या जिंदा हैं वो हो के जुदा हमसे
कुछ समन्दर है , कुछ दरिया भी
कुछ आस्मां सा है ख्यालों में अपने
रंग तो बहुत बिखरे हैं ज़माने में
हर रंग मगर जुदा है , तुम्हारे रुखसारों से
यूँ तो कहते हो की चले जाओ गम ना करेंगे
इक दिन भी गर जो ना मिले
लिहाफ तकियों के भीगते हैं, अश्कों से
||
वो सूरत-ऐ-हाल कहता है मुझसे
क्या जिंदा हैं वो हो के जुदा हमसे
इक नजर भर के देखा था उनको
कभी
समंदर के इक छोर पे
वो सैलाब नहीं था बड़ा दिल के समंदर से
इक बुझती सी ताम्बई धूप में , वो दामन समेटती तुम
इक वो शाम थी , की ,
नींदे ही रूठ गयी ,अपनी पलकों से
ना घबराना , ना शर्मना, ना रूठना , ना मनाना
अजीब है किस्सा मोहब्बत का अपनी
बस ठंडी रेत पर,
उडती जुल्फों के साए में तेरा चलना
और पाना तुझको मेरा क़दमों के निशानों से
वो सूरत-ऐ-हाल कहता है मुझसे
क्या जिंदा है वो हो के जुदा हमसे
कुछ सीने से समन्दर के
दूर , बादल बरसता है
हो के करीब भी मिलने को तरसता है
आज तरसता है ये समन्दर नीला
वो बादल लग जाए सीने से
वो सूरत-ऐ-हाल कहता है मुझसे
क्या जिंदा है वो हो के जुदा हमसे"
(अनिल मिस्त्री)
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