"रावण छोटा था "

रावण छोटा था

इस बार हम हमेशा क़ी तरह दशहरे का मेला देखने गए | और बार क़ी तरह इस बार रावण देखने में कई भिन्नताए थी , मेरे लिए इस बार का अवसर और भी ख़ास इसलिए थे क्योंकि मै १५ वर्षो के बाद भिलाई का रावण देख रहा था | मन में अनेको उमंगें थी , उत्साह था, उमर के इस मोड़ पे बचपन बहुत दूर जा चुका था मगर अपनी इस जमी पे आज भी आँखों के आगे दिखाई दे जाता| इन दिनों बचपन में सुबह से ही हमारा उत्साह देखते ही बनता था , शाम होते होते दिल क़ी धड़कने उत्साह से बढ जाती थी , शाम को जल्दी ही हम सब दोस्त खेल कर निपट जाते और ६ बजने तक तैयार होकर पिताजी का इन्तजार करने lagte | बचपन में अपने पिता के साथ सिविक सेण्टर का रावण का मेला, लम्बी चलने वाले आतिशबाजी और विशाल जनसमूह | हम दोनों भाई बहन पिताजी क़ी दुपहिया की सीट पे खड़े हो कर घंटो तक चलने वाले इस कार्यक्रम को देखा करते | अंत में जब रावण का पुतला जलता तो बड़ा आनंद आता , खासतौर पर मुझे रावण का सर पटाखे से फूटते देखने में अति आनंद आता था | अब ना पिताजी रहे और ना वो बचपन , हा मगर आज उस बचपन क़ी कड़ी जो पिछले १५ सालो से टूट गयी थी आज फिर जुड़ गयी , मुझे इस बात क़ी बड़ी खुशी थी और मै आज भी अपने उस खोये बचपन के साथ उस आतिशबाजी को किसी और जगह पे निहार रहा था |

मगर सच कहू तो इस रावण को देख के लगा ही नहीं क़ी इसमें रावण वाले वो बात है | झुकी हुई तलवार , पिचका हुआ पेट , ऊँचाई भी बहुत कम | बस टाई क़ी कमी थी वरना ये रावण किसी साक्षात्कार देने वाले प्रतियोगी की तरह ही लगता | राक्षसों वाला आवेश और रौब इस रावण में लगा ही नहीं | बड़ा विचार विमर्श किया , लोगो ने भी बड़ा मजाक उड़ाया , आतिशबाजी क़ी तारीफ तो की मगर सबने कहा "साली महंगाई ने रावण को भी नहीं छोड़ा " सचमुच सरकारी उलट पुलट और वर्तमान के नेताओ क़ी काली करतूतों को देख रावण भी लज्जित हो उठा | भ्रष्टाचार को ख़तम करने जानता ने मुहीम चलायी तो सरका ने महंगाई और बढ़ा दी | ईंट धोने वाले रामू और पानी भरने वाली कमली से लेकर स्कूल जाने वाले विनय और कॉलेज जाने वाले बच्चो तो काम काजी लोगो सभी को साथ में लपेट लिया | धंधे वालो ने भी अपना नुक्सान ना करने क़ी खातिर मिलावट करनी शुरू कर दी | पहले ४० % भ्रष्टाचारी स्वेच्छा से थे अब बचे ६०% मजबूरी में बन जायेंगे | जो बोले उसका गला काट क़ी नीती ने रावण का सारा व्यक्तित्व उनमे भर दिया | अब जब क़ी इतना सब हो ही चुका था , सिवाय सहने के और कुछ दबने के इस वक़्त क्या कर सकते थे | एक परम्परा थी बुराई पे अच्छाई क़ी विजय क़ी , जो हम मना रहे थे | मगर बुराई के ही प्रतीक चिन्ह जैसे लोग रावण को मात देते हुए जला रहे थे | आज रावण से भी ऊंचा कद उनका हो चला था , जो जन प्रतिनिधि कहलाते है | सारा तमाशा देखकर हम भी चल पड़े , मगर जब लोगो ने पुछा क्यों जी मजा आया ? सो हम क्या कहते सिवाय इसके क़ी हां ... मजा तो आया मगर "रावण छोटा था "

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