“आरज़ू”
आरज़ू जब भी कभी गुज़रूँ तेरी गली से एक पुराना सा मकाँ याद आये जलते क़दमों को , बेलगाम उखड़ती साँसों को आराम आ जाये ठहर जाती है उम्र उस वक़्त आज भी जब भी कभी ज़ुबान पे तेरा नाम आ जाए हम तो सीने में समंदर दबाए बैठे थे जाने कब से यही सोच कर की वो आयें या उनका कोई पैग़ाम आ जाये ”