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"पुरानी सोच का आदमी "

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"पुरानी सोच का आदमी " मै अपनी ज़िन्द्गि मे बहुत सी जगहो पे रहा और ज़िन्द्गि को उसके उतार चदाव् को देखता रहा। मेरी ज़िन्द्गि पे मेरे मिडिल स्कूल का और टीचरो का बहुत ज्यादा प्र्भाव् पडा । सच कहु तो मैने अपनी आन्खो के आगे ज़माने को बदलते देखा है । मगर हर वक़्त मे , हर ज़माने मे साहित्य का समाज पे बहुत गहरा प्रभाव् देखा गया है । मगर जब् मै आज के हालात देखता हू तो बड़ा अजीब् सा लगता है । लगता है चारो ओर आग लगी हुइ है । और नयी पीढी ना जाने किस नशे मे डूबी हुइ है ? बचपन के पौधो मे हम व्यवसयिकता और पक्के प्रोफ़ेसिओनलिसम् का ऐसा पानी और ऐसी खाद दाल रहे है की , ना तो नयी पीढी की जादातर फ़सल् कुछः जान पा रही है और ना ही जानने की कोशिश कर रही है । "बस पैसा होना चाहिये , मस्ती होनी चाहिये और क्या चाहिये ज़िन्द्गि मे " ऐसे जुम्ले अक्सर सुनने को मिल जाते हैं । किताबो के नाम पर और साहित्य के नाम पे करिएर् और सामान्य ज्ञान तो सही है मगर हमारे अपने इतिहास , साहित्य ,देशप्रेम ,समाज और संस्कृति की तरफ़् जुडा साहित्य कम होता जा रहा है । आजकल लोग इन सब् बातो को पुराना और ये स

"लिस्ट"

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"सोचता हू कभी कभी एक लिस्ट बनाऊ जिस देश मे रहता हू उसके हालतो पे कुछः अशक् बहाउ मगर लिस्ट बडी लम्बी होगी शायद हमारी उमर से भी ज्यादा लम्बी कभी बगल वालो की करतूतो पे तो कभी मह्न्गायी पे जो आज हम चावल् ४० रुपये किलो लेते हैं कभी इक आवाज़् लगाने वाले पे लगने वाली लाठियो पे कभी जन्गलो पे भतकटे गुमराहो पे कभी अचानक शहीद होते जवानो पे कभी गद्दारो पे , कभी पढे लिखे स्वर्थी लोगो पे कभी खून चूसने वाले सफ़ेद्पोशो पे कभी चारो ओर चलने वाले नाटक पे कभी बरसो से चलने वाले आन्दोलनो पे किस किस की लिस्ट बनाऊ मे और कब् तक बनाऊ "