“आरज़ू”


आरज़ू
जब भी कभी गुज़रूँ तेरी गली से 
एक पुराना सा मकाँ याद आये
जलते क़दमों को, बेलगाम उखड़ती साँसों को आराम जाये
ठहर जाती है उम्र उस वक़्त आज भी
जब भी कभी ज़ुबान पे तेरा नाम जाए
हम तो सीने में समंदर दबाए बैठे थे जाने कब से 

यही सोच कर की वो आयें या उनका कोई पैग़ाम जाये

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