"दस्तूर "

"कभी बह भी जाऊं कभी रह भी जाऊं 
इस वक़्त क़ी मौज के साथ 
 कभी इक कतरा बन के छलक जाता मै अश्क का 
 कभी महकता फिरूं गुलशन में गुलों के साथ 
 कभी देख दिल भी दुखता है गाफिलो को क़ी क्यूँ जी रहे 
 कभी हंसता हूँ खुद पे क़ी कितनी दूर से वापस आ गया मै वक़्त के साथ 
 कहते तो सब है सैकड़ो किस्से अपने -अपने 
 मगर ना बदलता दस्तूर ज़माने का वक़्त के साथ 
 और कभी ना मिलती मिठास किसी को कांटे बोने के बाद "

(अनिल मिस्त्री)

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