" सवालिया निशा "

"इक पल को सोचा करता हूँ भाग कर थकने के बाद

जाने क्यों हम तलाशते है जिंदगी , औरो के साथ

क्यों चाहिए हर पल कोई सरपरस्त साया सा

क्यों उठती है निगाहें गैरों क़ी ओर बनाकर इक सवालिया निशा

क्यों नहीं करते हम खुद अपने फैसले

क्यों देना हमें अपना , दूसरो को हिसाब

वक़्त से सब सीखा है हमने

गिरना भी उठना भी

तालीम भी ,तमीज भी और तजुर्बा भी

मगर क्यों नहीं होती आज भी

ये रूह हमारी आज़ाद

क्यों हम दरख्त नहीं बन पाते

होकर भी मजबूत हम बेल ही रह जाते

हम खू बहा जाते है

मरते और मार जाते है

कुछ भी सीख समझ के ,भी फैसले ना कर पाते

गुमराही या गुमनामी के नाम हो जाते कुर्बान

इक पल को सोचा करता हूँ भाग कर थकने के बाद "

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