"पुरानी सोच का आदमी "


"पुरानी सोच का आदमी "

मै अपनी ज़िन्द्गि मे बहुत सी जगहो पे रहा और ज़िन्द्गि को उसके उतार चदाव् को देखता रहा। मेरी ज़िन्द्गि पे मेरे मिडिल स्कूल का और टीचरो का बहुत ज्यादा प्र्भाव् पडा ।
सच कहु तो मैने अपनी आन्खो के आगे ज़माने को बदलते देखा है । मगर हर वक़्त मे , हर ज़माने मे साहित्य का समाज पे बहुत गहरा प्रभाव् देखा गया है । मगर जब् मै आज के हालात देखता हू तो बड़ा अजीब् सा लगता है । लगता है चारो ओर आग लगी हुइ है । और नयी पीढी ना जाने किस नशे मे डूबी हुइ है ? बचपन के पौधो मे हम व्यवसयिकता और पक्के प्रोफ़ेसिओनलिसम् का ऐसा पानी और ऐसी खाद दाल रहे है की , ना तो नयी पीढी की जादातर फ़सल् कुछः जान पा रही है और ना ही जानने की कोशिश कर रही है । "बस पैसा होना चाहिये , मस्ती होनी चाहिये और क्या चाहिये ज़िन्द्गि मे " ऐसे जुम्ले अक्सर सुनने को मिल जाते हैं ।
किताबो के नाम पर और साहित्य के नाम पे करिएर् और सामान्य ज्ञान तो सही है मगर हमारे अपने इतिहास , साहित्य ,देशप्रेम ,समाज और संस्कृति की तरफ़् जुडा साहित्य कम होता जा रहा है ।
आजकल लोग इन सब् बातो को पुराना और ये सब् बाते करने वालो को पुरानी सोच का आदमी कहते है । एक घरेलू मासिक पत्रिका में एक लेख लिखा था क़ी कैसे कुवारापन सुर्जरी से फिर से पाया जा सकता है .
अगर कोई लड़की बहुत ऊँचे पद पे है तो उसका कौमार्य भंग है या नहीं इससे उसके होने वाले पति को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए . और वो पत्रिका सबसे ज्यादा बिकने वाली घरेलू पत्रिका है | ऐसा पानी पी के कैसी फसल पैदा होगी ये अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है .

आजकल अन्ग्रेजी सबको पता है , अङ्ग्रेजी साहित्य , अश्लील साहित्य , टिप्स अमीर बनने के ,सुन्दर बनने के , प्दार्थ्वादी सोच पैदा करने के और धन को इन्सनियत से अधिक मह्त्व देने के सारे साहित्य और किताबे बाज़ार् मे मोउजूद हैं , मगर हिन्दी की किताबो का हमारे साहित्य और संस्कृति का ज्ञान कराने वाली किताबे और लोग गायब् होते जा रहे है । क्या करे बाज़र् मे भी वो ही आता है जिसकी maang होती है ।
मुज्हे बडा आश्चर्य होता है जब् मै सुनता हू की एक इन्जिनिअर को ये नही पता की हमारे देश का राष्ट्र पति कौन् है , या एक कंपनी सचिव को ये नही पता की भारत मे कितने राज्य है । कुछः दिनो पहले मै एक प्रतिष्ठित कंपनी मे था , मेरे साथ् एक लडकी कैब् मे जाया करती थी , वो हर बात के बाद ये जरूर कहती थी "after all I am M.B.A." और मुज्हे बडी हन्सी आती थी जब् हम उसे कोइ हिन्दी की गिनती कहते तो वो उसका मत्लब् पूछ्ती थी । उसे ये नही पता था की बावन् और चौआलीस् के मायने क्या है , मगर वो अपने आपको दुनिया का सबसे ज्यादा पढा लिखा और व्यवसायिक इन्सान सोच्ती थी । जब् मै उसे तमूर और शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप के किस्से सुनाता तो वो यु देखती मानो मै किसी और देश से आया हू ।
उसे भारत के ५ नाम नही पता है मगर अमेरिका के बारे मे सब् कुछः पता है । किस दुकान मे कपडे की किस ब्राण्ड् पे कितना discount है सब् पता है । मगर ना तो मुन्शी प्रेम चन्द को वो ठीक से बता पाती है और ना ही उसे ये पता है की भारत मे कितने राज्य और कितने केन्द्र शाषित प्रदेश है । इन सब् बातो को वो मिडिल स्कूल् के किसी किताब् के पन्ने से ज्यादा वो कुछः नही सम्ज्ती , जिसे याद रखने से कोइ फ़ाय्दा नही होने वाला
खैर ऐसे लोगो की कमी नही है , आज का हमारा माहोउल् ही ऐसा होता जा रहा है । पढो वो जिससे सिर्फ़ नोकरी मिल जाये , प्रमोशन हो जाये , पैसा मिल जाये , exam मे पास हो जाये बस , बाकी किसे जरुरत है ?
क्या करना की बाबर ने क्या किया , हुमायु ने क्या बनाया, शङ्कराचार्य जी कौन् थे ? हमारे देश मे कितने राज्य है ? हिन्दी वास्तव् मे क्या है ? हमारे पास कौन् कौन् से लडाकू विमान है , हमारी सेना की ताक़त् क्या है , इस सब् से क्या फ़ाय्दा ? मै ऐसे बहुत से लोगो से मिला हू जो मेरा हिंदी उच्चारण और ये सब बाते जो मैंने ऊपर कही, सुनकर मुझे हिंदी का विशेषज्ञ या स्कूल टीचर या फिर व्यक्तिगत रूप से इन बातो में रूचि रखने वाला समझते है . जबकि सच बात तो ये है क़ी ये सब बहुत ही मामूली बाते है जो किसी देश में रहने वाले हर आदमी को जानना चाहिए. अपनी भाषा का सम्मान करना चाहिए और दूसरो से पहले अपने बारे जानकारी रखना चाहिए .
आजकल कॉन्वेंट स्कूलों में और महंगे प्रतिष्ठित संसथानो में भी सिर्फ व्यवसायिक ज्ञान ही दिया जाता है और उसका नतीजा ये निकलता है इंसान कॉरपोरेट जगत का पैसा कमाने वाला पुतला बन के रह जाता है .
ये सच है क़ी धन आज के वक़्त में बहत जरूरी है , उन्नती करना भी बहुत अच्छा है , मगर अपनी जड़ो को भूलना बिलकुल भी अच्छा नहीं है .हलाकि ये अपने अपने लगाव और रूचि क़ी बात है , मगर मुझे तो भारत के इतहास और संस्कृति से ज्यादा भरा पूरा और समृद्ध किसी और देश का नहीं लगता . हर त्यौहार , हर पर्व , हर फसल और पौधे से लेकर आजादी के आन्दोलनों और देश प्रेम के सच्चे किस्सों से ये देश भरा पड़ा है .
जहा हर २० किलोमीटर के बाद बोली बादल जाती है , संस्क्र्तियाँ बदल जाती है, खाने पीने व्यंजनों से लेकर कपडे तक बदल जाते है , जहा बर्फ से लेकर रेगिस्तान , समन्दर से लेकर पर्वतीय देव्भूमियां मौजूद है. क्या यु भी ये पढने का और खुद पे गर्व करने का विषय नहीं है ? क्या ये जरूरी है क़ी कल को कोई दूसरे देश का नागरिक आये और यहाँ रिसर्च करके एक किताब लिखे , और जब वो महंगे उच्चवर्गीय माल या दुकानों में जाए तब हम उसे खरीद के और पढ़ के अपने बारे में जाने ? बिलकुल नहीं , मै भी एक शुद्ध कॉरपोरेट जगत में काम करता हूँ , जहा सोच को भी व्यवसायिक होना पड़ता है , मगर सिर्फ वही तक , घर आकर में पूरा हिन्दुस्तानी बन जाता हूँ , बहुत सी लोकल बोलियाँ मै जानता हूँ , सरकारी स्कूल में पढ़ा , सरकारी संस्थान से इंजीनियरिंग भी की , मगर मैंने कभी खुद को छोटा नहीं माना , बल्कि हमेशा गर्व किया और जो नहीं जानते थे उन्हें ये बताया क़ी हिंदी और हिन्दुस्तान क्या है ? मै बावन और बयालीस भी जानता हूँ और फिफ्टी टू और फोर्टी टू भी .
और आज भी मुझे मुंशी प्रेम चंद क़ी कहानियों में और हिंदी क़ी दूसरी कहानियों में जो रस आता है वो किसी और में नहीं आता , क्योंकि जब से मैंने बोलना सीखा तब से हिंदी ही सीखा , पहला अक्षर हिंदी का ही लिखा , ये मुझे मात्रभाषा का अर्थ समझाती है , और कोई भी दूसरी औरत जिस तरह माँ क़ी जगह नहीं ले सकती , हिंदी क़ी जगह कोई और भाषा मेरे मन हिंदी क़ी जगह नहीं ले सकती .
रही बात संस्कृति क़ी तो ज्यादातर लोग इसे दूरदर्शन का कोई पुराना कार्यक्रम या प्रायमरी का कोई विषय समझते है मगर सही मायनो में संस्कृति ये समझाती है क़ी इंसान और जानवर में क्या फर्क है . जिसे हम अंग्रेजो का मैनर्स कहते है , वो मैनर्स वो यही से सीख के गए है . क्योंकि जब इंग्लॅण्ड में लोग जंगली हुआ करते थे तब भी और उससे पहले भी हमारे यहाँ एक बेहद फलती फूलती सभ्यता और संस्कृति थी .
हमारे यहाँ लोगो के काम पहले से तय थे,मौसम क़ी भविष्यवाणी से लेकर इंसान क़ी उन्नती और विज्ञान,गणित हमारे पास विकसित थे .

इसलिए आज जो देश क़ी हालत हो रही , और लोगो में नैतिक मूल्यों में कमी हो रही है , सब जगह अपराध बढ रहे है उसके पीछे बहुत बड़ा कारण ये ही है क़ी आज बहुत कम लोग और बहुत कम किताबे है जो हमें सही या गलत बताती हैं .दुनिया के बहुत से ऐसे सर्वे हो चुके है जो ये बतलाते है क़ी बहुत अमीर लोग सिर्फ ५% ही ज्यादा खुश रहते है किसी गरीब इंसान क़ी तुलना में .मन क़ी संतुष्टी , अपनी जमीन से जुड़े रहने क़ी भावना , और अपने पे गर्व करने क़ी मानसिकता बहुत ज्यादा व्यवासियक होने से कही बड़ी है . खैर ये अपने अपने आदर्शों क़ी बात है मगर सही या गलत जानना बहुत जरूरी है , क्योंकि जब तक हम खुद के बारे में नहीं जानेंगे तब तक हमे ये नहीं पता चलेगा क़ी हम क्या है और कहा हमारी म अंजिल है|
शायद तब इस देश का और हमारे जीवन का भला होगा| क्योंकी एक तरफ बर्बादी का आलम है और जिन पे राष्ट्र को बदलने का उसे सुधारने का और परिवर्तन लाने का जिम्मा होता है, उन्हें पता ही नहीं क़ी वक़्त क़ी आंधी हमें किस गर्त में ले जा रही है | इस वक़्त को देख कर मुझे इतिहास का एक किस्सा याद आता है | जब अंग्रेज चीन पहुचे तो इतना बड़ा देश देख कर उनकी आँखे फट गयी , क्योंकि जितनी इंग्लैण्ड क़ी जनसंख्या थी उतनी तो चीन की सेना में जवान थे , या शायद उससे भी ज्यादा | उनसे लड़ा कैसे जाए ? इसके लिए उन्होंने चीन में अफीम का व्यापार करना शुरू कर दिया और चीनी जानता को नशेड़ी बना दिया | बरसों बाद चीन में अफीम युद्ध हुआ , तब तक अफीम और अंग्रेजों क़ी जड़े चीन में गहरी जम चुकी थी |
क्या ऊपर लिखे उदाहरण से हमें आज के हालातो पे और अपनी भूमिका के बारे में समानता नहीं लगती ?
शायद इसी लिए कभी स्वामी विवेकानंद ने कहा था क़ी "वेदों क़ी और लौटो " क्योंकि सब कुछ हमारे पास है , हमारी मिटटी में गडा है उसे निकालने और उसका महत्व समझने क़ी जरुरत है .वरना सिर्फ यही कहना काफी है क़ी ये लेख लिखने वाला कोई पुरानी सोच का आदमी है |


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टिप्पणियाँ

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  2. अनिल भाई आप ने सही लिखा है कि नयी पीढ़ी के लोग पढ़ तो रहे हैं। आगे भी बढ़ रहे हैं लेकिन वो अपनी मिट्टी की खुशबु से महरूम होते जा रहे हैं। लेकिन आप जैसे लोग जब तक इस दुनिया में जिंदा है कोई भला कैसे कह सकता है कि हमारी पीढ़ी देश और उसकी संस्कृति से अनभिज्ञ है। आपने मेरा ब्लाग www.gudikegoth.blogspot.com में नया सवेरा से नई शुरूआत में मेरा हौसला आफजाई की उसके लिए भी आपको कोटि-कोटि धन्यवाद। आपने आपने प्रोफाइल में भिलाई का जिक्र किया है। लेकिन आप वास्तव में वर्तमान में कहा है इसका पता नहीं चलता। साथ ही आपको अपनी छत्तीसगढ़ के भुइंया से दूर होने का गम नहीं होना चाहिए। छत्तीसगढ़ से बाहर रहकर भी अपनी पवित्र धरती मां के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं ऐसा मेरा मानना है। मै यहां इस बात का जिक्र जरूर करूंगा कि मै भी तीन साल तक अपने मातृभूमि से दूर था। लेकिन इस धरती के प्रति मेरे मोहब्बत में कोई कमी नहीं आई। आप भी इस धरा से दूर रहते हुए भी बहुत कुछ कर सकते हैं अपनी मातृ-भूमि के लिए। छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र को मेरा स्नेह और गाड़ा-गाड़ा शुभकामना अपने देश और छत्तीसगढ़ी के बारे में सोचने और कुछ करने के लिए।

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  3. प्रशांत जी आपको बहुत बहुत धन्यवाद , मेरी मित्रता स्वीकार करने के लिए | मै जल्दी ही भिलाई आ रहा हूँ , और आपके द्वारा मुझे माटी पुत्र संज्ञा देने पर मन अती प्रसन्न हो गया | आजकल के जमाने में लोग सोशल ना होकर प्रोफेसनल रह गए है | मगर पदार्थ वादिता क़ी इस दौड़ में . दोस्ती, प्रेम, भक्ती, शांती , सुकून , संगीत और ऐसी बहुत सी चीजे है जो जीवन में बहुत ज्यादा मायने रखती है | मै बरसो अपने बचपन को, अपने आप को तलाशता रहा , मगर मै अपनी मिटटी में ही मिला | आज भिलाई में मेरा कुछ भी नहीं रहा , मगर भिलाई जाकर , दोस्तों क़ी दोस्ती आज भी मुझे अपनी चाल में वो अकड़ देती , जो किसी जागीरदार को अपनी जागीर में टहलते हुए होती होगी | सधन्यवाद आपका
    अनिल मिस्त्री

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