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उलझी सी कश-म-कश

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“उलझी सी कश-म-कश” “ज़िन्दगी एक खूबसूरत उलझी सी कश-म-कश बहती जैसे एक पहाडी नदी अल्हड मद-मस्त कभी जूझती कभी गाती कभी पथरीली चट्टानों से चोटिल भी हो जाती मगर बहती जाती हर पल ना रुकना , ना थकना और ना थमना बस आगे ही बढ़ते रहना जैसे चलने का फलसफा हो सीधा सा एक बस कभी मकडी के एक जाले पे जमी ओस की बूंदों की लडियां कभी किसी जंगली कचनार की फूटती कलियाँ कभी सुर्ख रंग जंग का तो कभी बहते आंसू बेबस कभी क्रोध, क्षोभ ,बदले और मोह की अनगिनत लपटों में जलती कभी दूर ऊंचे मंदिर के दीपक में टिमटिमाती कभी मस्जिद क़ी अजान में गुनगुनाती कभी मिलती ऐसे, हो मानो अज्ञान का गहरा तमस और कभी प्रेयसी के अधरों का सौम्य स्पर्श ज़िन्दगी एक उलझी सी कश-म-कश बहती जैसे एक पहाडी नदी अल्हड मद-मस्त”

"रावण छोटा था "

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रावण छोटा था इस बार हम हमेशा क़ी तरह दशहरे का मेला देखने गए | और बार क़ी तरह इस बार रावण देखने में कई भिन्नताए थी , मेरे लिए इस बार का अवसर और भी ख़ास इसलिए थे क्योंकि मै १५ वर्षो के बाद भिलाई का रावण देख रहा था | मन में अनेको उमंगें थी , उत्साह था, उमर के इस मोड़ पे बचपन बहुत दूर जा चुका था मगर अपनी इस जमी पे आज भी आँखों के आगे दिखाई दे जाता| इन दिनों बचपन में सुबह से ही हमारा उत्साह देखते ही बनता था , शाम होते होते दिल क़ी धड़कने उत्साह से बढ जाती थी , शाम को जल्दी ही हम सब दोस्त खेल कर निपट जाते और ६ बजने तक तैयार होकर पिताजी का इन्तजार करने lagte | बचपन में अपने पिता के साथ सिविक सेण्टर का रावण का मेला, लम्बी चलने वाले आतिशबाजी और विशाल जनसमूह | हम दोनों भाई बहन पिताजी क़ी दुपहिया की सीट पे खड़े हो कर घंटो तक चलने वाले इस कार्यक्रम को देखा करते | अंत में जब रावण का पुतला जलता तो बड़ा आनंद आता , खासतौर पर मुझे रावण का सर पटाखे से फूटते देखने में अति आनंद आता था | अब ना पिताजी रहे और ना वो बचपन , हा मगर आज उस बचपन क़ी कड़ी जो पिछले १५ सालो से टूट गयी थी आज फिर जुड़ गयी , मुझे इस ब

" सवालिया निशा "

"इक पल को सोचा करता हूँ भाग कर थकने के बाद जाने क्यों हम तलाशते है जिंदगी , औरो के साथ क्यों चाहिए हर पल कोई सरपरस्त साया सा क्यों उठती है निगाहें गैरों क़ी ओर बनाकर इक सवालिया निशा क्यों नहीं करते हम खुद अपने फैसले क्यों देना हमें अपना , दूसरो को हिसाब वक़्त से सब सीखा है हमने गिरना भी उठना भी तालीम भी ,तमीज भी और तजुर्बा भी मगर क्यों नहीं होती आज भी ये रूह हमारी आज़ाद क्यों हम दरख्त नहीं बन पाते होकर भी मजबूत हम बेल ही रह जाते हम खू बहा जाते है मरते और मार जाते है कुछ भी सीख समझ के ,भी फैसले ना कर पाते गुमराही या गुमनामी के नाम हो जाते कुर्बान इक पल को सोचा करता हूँ भाग कर थकने के बाद "

"पुरानी सोच का आदमी "

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"पुरानी सोच का आदमी " मै अपनी ज़िन्द्गि मे बहुत सी जगहो पे रहा और ज़िन्द्गि को उसके उतार चदाव् को देखता रहा। मेरी ज़िन्द्गि पे मेरे मिडिल स्कूल का और टीचरो का बहुत ज्यादा प्र्भाव् पडा । सच कहु तो मैने अपनी आन्खो के आगे ज़माने को बदलते देखा है । मगर हर वक़्त मे , हर ज़माने मे साहित्य का समाज पे बहुत गहरा प्रभाव् देखा गया है । मगर जब् मै आज के हालात देखता हू तो बड़ा अजीब् सा लगता है । लगता है चारो ओर आग लगी हुइ है । और नयी पीढी ना जाने किस नशे मे डूबी हुइ है ? बचपन के पौधो मे हम व्यवसयिकता और पक्के प्रोफ़ेसिओनलिसम् का ऐसा पानी और ऐसी खाद दाल रहे है की , ना तो नयी पीढी की जादातर फ़सल् कुछः जान पा रही है और ना ही जानने की कोशिश कर रही है । "बस पैसा होना चाहिये , मस्ती होनी चाहिये और क्या चाहिये ज़िन्द्गि मे " ऐसे जुम्ले अक्सर सुनने को मिल जाते हैं । किताबो के नाम पर और साहित्य के नाम पे करिएर् और सामान्य ज्ञान तो सही है मगर हमारे अपने इतिहास , साहित्य ,देशप्रेम ,समाज और संस्कृति की तरफ़् जुडा साहित्य कम होता जा रहा है । आजकल लोग इन सब् बातो को पुराना और ये स

"लिस्ट"

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"सोचता हू कभी कभी एक लिस्ट बनाऊ जिस देश मे रहता हू उसके हालतो पे कुछः अशक् बहाउ मगर लिस्ट बडी लम्बी होगी शायद हमारी उमर से भी ज्यादा लम्बी कभी बगल वालो की करतूतो पे तो कभी मह्न्गायी पे जो आज हम चावल् ४० रुपये किलो लेते हैं कभी इक आवाज़् लगाने वाले पे लगने वाली लाठियो पे कभी जन्गलो पे भतकटे गुमराहो पे कभी अचानक शहीद होते जवानो पे कभी गद्दारो पे , कभी पढे लिखे स्वर्थी लोगो पे कभी खून चूसने वाले सफ़ेद्पोशो पे कभी चारो ओर चलने वाले नाटक पे कभी बरसो से चलने वाले आन्दोलनो पे किस किस की लिस्ट बनाऊ मे और कब् तक बनाऊ "

"कुछः इस तरह"

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कुछः इस तरहः इक खिलता है गुल् , कुछः इस तर"हः जिन्द्गानी मे है वो रह रह के महके, मानो गुलाबो का अर्क हो यू तो आदत नही हमको रेशमी राहो की बस एक मखमली संदल् सा है वो कुछः मदमाती सी लहर सी कुछः सब्ज़्बाग् सा मन्जर इक ऊन्ची पहाडी पर बाद्लो को चूमती ओस मे भीगी हरियाली है वो हमको तो मालूम भी नही की, है क्या बस मेरी खुशहाली की कहानी है वो" (अनिल मिस्त्री)

"कुछः बाते"

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"कुछः बाते रह रह कर मेरे कानो मे आ जाती हैं एक रन्गीन से पुराने थैले मे से जैसे ,यादो की नयी तितलिया निकल आती हैं वो झूम के चलना यारो के साथ् कुछः मीठी चाय की चुस्किया, फ़ीकी मत्ठियो के साथ् मानो दिल की कोइ मुराद पूरी हो जाती है यु तो कितना भटका मे ज़माने की राहो पे मगर जाने क्यो आकर इस जमीन पे हर तलाश खतम हो जाती है मानो जन्ग से आये किसी सैनिक की माशुका की बाहो मे रात गुजर जाती है कभी बारिशो की साफ़् धुलति सडक कभी महकती आम की बौर् की खुशबू हर फ़िज़ा जिस जहान की मुज्हे गले लगाति है सच कहता हू जहान की किसी जन्नत मे वो बात नही जो मुजःको इस मिट्टी मे नजर आती है ये वो जमीन है जिसमे घुली है मेरे बचपन की कहानिया मेरे श्खसियत के किस्से , मेरे अतीत की, मेरे सपनो की बुनियादे ये मोह्ब्बत है मेरी जो मुजःको पास बुलाती है और बरसो बाद भी आज इस जमी की धूल को माथे पे लगाने की ख्वाईश् हो जाती है कुछः बाते रह रह के मेरे कानो मे आती है और फ़िर् से जिन्दगी के पुराने थैले मे से यादो की नयी तितलिया निकल आती हैं "

"वीराने"

"रातो की खमोशियो को मिलने के बहाने आ गये कुछः भारी अल्फ़ाज़् लबो के किनारे आ गये यु तो कम ही रही , खुश्नुमा सी ये ज़िंदगी इक बार फ़िर् दिन पुराने आ गये ये क्या कश-म-कश लगी है जीने की कुछः ख्वाब् सजाने की कुछः भाग जाने की कुछः अपनी जमी मे खो जाने की उमर भर लड कर , अब लगता है क्या ही मज़ा आया, ज़िंदगी भर लड़कर जो आज हर तरफ़् वीराने छा गये "

"गम "

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"कुछः बात है कुछः अफ़्साना है कुछः गम है कुछः तराना है इक पुरानी सी आदत है ज़िन्दगि की हर खुशी के साथ् गम को भी आना है चन्द चिराग जल जाया करते हैं बहुत खून बहाने के बाद इक झोन्के को आन्धी के , घना अन्धेरा कर जाना है यु तो बहुत हैं साथ् चलने वाले जाने कहा मगर हमसाये का ठिकाना है " (अनिल मिस्त्री)

"दुनिया "

"दुनिया " "ये दुनिया कभी बडी बेजार लगति है ज़िन्द्गी बस मौत् का इन्त्ज़ार् लगती है करे क्या हम बयान हाल-ए-दिल किसी से सबकी नीयत अब तो बेकार लगती है "