"आई . टी .प्रोफेशनल की व्यथा "

"किससे कहें हम व्यथा हमारी
स्वचालित डिब्बे के सामने बैठ
सींचते अपने सपनो की फुलवारी
चंद बंद ठंडी दीवारों में
सर्वेरों से उलझते , चलती जीवन की गाड़ी
किससे कहें हम व्यथा हमारी
इक समय था जब मन मदमस्त पंछी था
नीला अम्बर , सौम्य सवेरा था
अब तो रचना क्या कल्पना भी होती
बाजार की मारी
और अति अल्प समय में होती
अनगिनत युद्धों की तैयारी
किससे कहें हम व्यथा हमारी
इक पल को भी क्षणिक ना माना जाता यहाँ पे
रहना हो इस दौड़ में तो गति बढ़ाना जहाँ में
चंद उँगलियों की खट पट में छिपी होती
सुनहरे या सुलगते भविष्य की कथा सारी
किससे कहे हम व्यथा हमारी
अनगिनत गणितीय गणनाओं में
सोच से भी तेज भागती , तकनीक हमारी
याद नहीं दिन रैन यहाँ पे
बस स्वचालित सी होती सोच हमारी
क्या दीपावली क्या होली सब, समझदार बक्सों के साथ
क्या रिश्ते , क्या प्रेम इस जगत में
हर दृश्य , बस इक मूषक की चटक के बाद
क्या प्रेम क्या रास क्या रंग क्या संगवारी
सोशल नेट्वोर्किंग के नाम पे विरक्त होती , ये दुनिया सारी
बालक होते जाते समझदार ,समय से पूर्व
स्नेह , प्रेम , छल , वर्तमान का हो गया अभूतपूर्व
ना दिखता बचपन , ना मिलती सरलता की छाप हमारी
किससे कहें हम व्यथा हमारी "

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