"कल्पना "

"इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है 
मेरी सर्द गर्म सुर्ख गालों पे है ठहरी 
 तेज़ हवाओं में सिमट जाती जब, 
नारियल के पेड़ों की पत्तियां और पीछे से उनके , 
जब नज़र आती, चन्द्र-ज्योत्स्ना 
 कुछ ऐसी ही लगती वो, 
आंचल को समेटे , 
स्वयं रूप-प्रहरी 
 इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है मेरी 
... वो स्याह रात्रि सी कनखियों में, 
विस्मय भरे बिरला ही हो कोई, 
जो उस पे ना रीझे जाने कैसी रचना वो , 
अद्भुत अचरज से भरी 
 इक भीगी सी कोरी कल्पना है मेरी ..... 
वो अबोध , रूप से स्वयं के शायद , 
कभी , आतुर बड़ी , किताबों में कुछ सूखे पुष्प ढूंढती कभी , 
खो चुकी सुख चैन की कल्पनाओं में खुद को 
 हो राधा जैसे कुञ्ज-बिहारी के आलिंगन में लिपटी 
 इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है मेरी ना दुःख , ना क्षोभ का कोई चिन्ह बस मदमाती , खनकती , चंचलता से भरी सरलता , मानो , मुस्कान हो , शिशु जैसी ना मोह कल का , ना चिंता कल की इक वर्तमान का जीवन क्षणिक , मधु सा ऐसे सरल , मदमस्त रुपहले जीवन की कल्पना है मेरी इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है मेरी "

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्‍दर कल्‍पना है अनिल जी. धन्‍यवाद.

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  2. संजीव जी प्रसंशा के लिए बहुत -बहुत धन्यवाद , ऐसा ही स्नेह बनाये रखे , ताकि हमारी रचनाओं को और हमें प्रोत्साहन मिले

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