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"कल्पना "

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"इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है  मेरी सर्द गर्म सुर्ख गालों पे है ठहरी   तेज़ हवाओं में सिमट जाती जब,  नारियल के पेड़ों की पत्तियां और पीछे से उनके ,  जब नज़र आती, चन्द्र-ज्योत्स्ना   कुछ ऐसी ही लगती वो,  आंचल को समेटे ,  स्वयं रूप-प्रहरी   इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है मेरी  ... वो स्याह रात्रि सी कनखियों में,  विस्मय भरे बिरला ही हो कोई,  जो उस पे ना रीझे जाने कैसी रचना वो ,  अद्भुत अचरज से भरी   इक भीगी सी कोरी कल्पना है मेरी .....  वो अबोध , रूप से स्वयं के शायद ,  कभी , आतुर बड़ी , किताबों में कुछ सूखे पुष्प ढूंढती कभी ,  खो चुकी सुख चैन की कल्पनाओं में खुद को   हो राधा जैसे कुञ्ज-बिहारी के आलिंगन में लिपटी   इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है मेरी ना दुःख , ना क्षोभ का कोई चिन्ह बस मदमाती , खनकती , चंचलता से भरी सरलता , मानो , मुस्कान हो , शिशु जैसी ना मोह कल का , ना चिंता कल की इक वर्तमान का जीवन क्षणिक , मधु सा ऐसे सरल , मदमस्त रुपहले जीवन की कल्पना है मेरी इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है मेरी "

"गलत "

"सोचा था की धमाकों की भीड़ होगी क़दमों में हमारे सैकड़ों सैलाबों की ताक़त होगी इरादों में हमारे चल के आज मीलों दूर लगता है आखिर क्या पाया , हमने अपना दिल जला के जाने कहाँ, कब, क्या गलत हुआ मालूम नहीं मंजिल खो गयी मगर, मंजिल की राहों में आ के "

"हादसों का सफ़र "

"ये ज़िंदगी इक सफ़र है हादसों का कई संगीन, मगर कुछ हसीं भी हैं ये आरामतलबी का शौक जायज नहीं , मालूम है मुझको दुनिया जीतने की मगर नहीं कोई वजह भी है मै वक़्त काटता नहीं यूँ ही सोकर अपने हरम में इक ख्वाब बुनता हूँ होकर सबसे जुदा भी तलाशता हूँ मै रोज़ खुद को वो बाकि कहीं मेरी खुशनसीबी भी है लगता है कभी की भूल गया राह अपनी तपिश भरी गर्म राहों पे मेरी शायद उनकी जुल्फों की छांव जमी भी है तमन्ना तो की थी बड़ी उनकी के शायद वो लबों की सुर्खी से ज़िंदगी में हमारी रंग भरेंगे बेरंग तो नहीं अब मगर सुर्ख लहू से अब तो हवा रंगीन भी है ये ज़िंदगी इक सफ़र है हादसों का कई संगीन , मगर कुछ हसीं भी हैं "