"परछाई"


"मुझको उनकी हर बात याद आती है

जो गिरे और उठे कभी राहों में साथ

दबी-दबी सी इक आवाज़ सुनाई आती है

मै तो चलता ही रहा अपनी धुन में अक्सर

ज़िंदगी बस कभी उखड्ती कभी दबती राह

नज़र आती है

खो चुका मै खुद को ना जाने कब

दिल की पनाह में कहीं मगर छुपा है ख्याल-ऐ-रब

दिल करता है फिर से चलूँ उस गली में

कोई अपना नहीं जहां , मगर

हर दीवार पे अपनी परछाई नज़र आती है "

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