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"जाने दिल क्यू भारी है आज"

"जाने दिल क्यू भारी है आज इक अजीब् सी उदास रात महकी चान्द्नी कुछः दूर कुछः पास कुछः तूटते ख्वाब् कुछः बेजान अरमान कुछः अपनो के अश्को कि बरसात और कुछः अजीब् सी पशोपेश मे फ़न्सा इक इन्सान इक मोह्ब्बत से बसायी बस्ती मे सुलगति इक ज़िन्दा आग जाने दिल क्यू भारी है आज इक अजीब् सी उदास रात कुछः वक़्त भी आगे सा निकल चुका कुछः ज़माना नया सा हो चुका अब सजा क्या दे हम खुद को इक दिल भी अपना रहने वाले भी खास जाने दिल क्यू भारी है आज "

तमन्ना

"तमन्ना " "कुछः हूर कि ख्वाइश् थी कभी चान्द् का इराद था इक महका सा गुलाब् था कभी ख्वाबो मे हर दुआ मे जिसको मान्गा था इक सादगी मे लिप्टी वो वो तमन्ना मेरी मिली कुछः इस कदर के पता ही नही चला यहि थी वो जिसको हमे पाना था " (अनिल मिस्त्री)

"दास्तान"

"दस्तान " हम ही कहते रहे कि जमाने से के ख्वाब् बुना करो मुमकिन तो नही कि हर खवाब् पूरे हो मगर ख्वाहीश् तो पता हो यू तो बहुत देखा ख्वाब् बुनने वालो को रोते इक मुक्कंमल् ख्वाब् कि खुशी , मगर हर अधूरी तमन्ना से जुदा हो और कब् तक रहोगे तकदीरो के भरोसे कोइ तो हो मन्जिल जिसके पीछे गमो कि लम्बी दस्तान हो

"हसरत "

"हसरत " "जाने कब् अन्धेरो का सफ़र् खतम हुआ नूर कि इक किरन जग्मगायी है यू तो दोस्ती हमारी गमो से ही रही अब तक इक मुस्कान अब लबो पे छाई है क्या कहु तुम्हे , मेरी खुश्नसीबी या दुआ कोई या कोई हसरत दिल कि अधूरी जो आज मुकंमल् हो पायी है "

"इकराज़ "

"इक राज़ तेरी निगाहों से यूँ ही ब्यान होता है कोई है आस पास मेरे जो , ख्यालों में मेरे ख्वाबो सा जवान होता है कुछ दीवानगी तेरी ख्वाईश में कुछ दिल्लगी का सामान भी होता है मुझको परवाह नहीं कि हूर हो या हो कोई आफत इस दुनिया कि बस वफ़ा का नगमा सुनने को दिल तरसता है इक लिबाज़ हसीं में तेरा संगमरमरी जिस्म छिपने को डरता है कभी भीगी सी हवाओं में कभी आधी सोयी फजाओं में इक नीली सी झील में तेरा अक्स देखने को ये दिल रोता है "

"बेशरम का फूल "

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"बेशरम का फूल " कभी आपने बेशरम का फूल या पौधा देखा है ? नदी नालों के किनारे , गीली और दलदली जमीन पे उगने वाली ये घनी जंगली झाड़ीनुमा पौध अकसर आपको डबरों और दलदलो के किनारे दिख जाएगी | ये बहुत तेजी से बढ़ने वाली और काफी जल्दी ऊंची हो जाने वाली झाड़ी है | पानी साफ़ हो या गन्दा ये बहुत तेजी से फलते फूलते है और विकसित हो जाते है | जब ये पूर्णतः विकसित हो जाते हैं तो इनमे नीले जमुनी रंग के जासौन के जैसे फूल खिलते हैं | अब सवाल ये उठता है कि, एक जंगली पौधे में या इसके फूलों में ऐसा क्या ख़ास है कि मै इसका वर्णन इतने विस्तारपूर्वक कर रहा हूँ ? एक जंगली झाड़ी को इतना महत्व देने का क्या अर्थ है ? हाँ अगर बात गुलाब या चमेली जैसे शाही फूल या पौधे कि हो तो बात भी बनती है , जिससे खुशबूदार तेल , गुलकंद और अर्क नाम कि उपयोगी और बाजारू चीजें बनायीं जा सके | इसके अलावा बेशरम के फूल में न तो महक होती है और ना ही इसका कोई ख़ास इस्तेमाल होता है | मगर एक बात है जो मुझे बार-बार इस पौधे कि तरफ आकर्षित करती है , वो है इसकी जीवटता | जो ना तो बाज़ार में कहीं मिल सकती है और ना ही कहीं और खर

" फासले "

" फासले " "आओ कुछ नज़रों से हमारी शिकायत कर लो नजर क्या चीज़ है कुछ जुबान से भी मोहब्बत कम कर लो हर सितम मंजूर है आपका बस जरा दिल से हमारे फासले कम कर लो माना की कुछ रूठे से लगते हो कब्रगाह पे बिखरी चांदनी से दिखते हो इक हंसी से दुनिया हमारी आबाद कर दो हर शिकायत हो जाएगी दूर हमसे बस बाहों में आकर धडकनों में हमारी नाम अपना सुन लो "

निगाहों की चमक

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"निगाहों की चमक कुछ गुलों में नजाकत भी आज कम है कुछ हवाओं में नमी है बस तुम्हारी निगाहों की चमक देखने को, ये दुनिया थमी है ये ख़्वाहीश है वक़्त की कि उन लम्हों से  मोहब्बत कर लें हम जिनमे तुम मुस्कुराते हो रँज करने को तो वरना, सारी ज़िंदगी पड़ी है” (अनिल मिस्त्री) (अनिल मिस्त्री)

जिन्दगी

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"जिन्दगी" "किसी रोज़ मिली थी राह में मुझको, जिन्दगी मासूम सी बाते कुछ पूरी कुछ अधूरी सुरमई आँखों में , कुछ शरारत , कुछ नजाकत लिए रंगत कुछ ऐसी जैसे इक प्याला दूध में , इक चुटकी, रंग सिन्दूरी कुछ पूछे ,कभी कुछ बताती सी वो अनगिनत उलझे से सवालों में उलझती हुई जैसे अँधेरे-उजाले में ढलती हुई, शाम हो कुछ उजला सा दिन और कुछ रात, अँधेरी कुछ खिल के कभी हँसना उसका कभी शरमाना , कभी हलकी सी ओस में गुलाबों को हवाओं का छू जाना हर गहरी सी बात में सहमी सी वो खिली धूप में जैसे अचानक सी छाई घटा काली गहरी कुछ दिन भी बदले और साल बन गए रात और दिन के साए में कुछ फासले ज़िंदगी से बन गए अचानक इक दिन खबर मिली बहुत बुरी ज़िंदगी खो गयी खवाबों की हकीकत में और हर हमसाये से लापता हो गयी वो याद उसकी दिल में ही बस गयी फिर भी दिल से निकली बस इक दुआ ज़िंदगी में ज़िंदगी के हर तमन्ना हो पूरी इस दिल में ख्वाईश थी की ज़िंदगी हो मेरी शायद तकदीर को ना थी मंजूरी कुछ पल को रोये ,कुछ अश्क भी बहाए फिर मुस्कुराकर कर उठे सोचा की बस ये आवारगी है मेरी कुछ

'आजादी का जश्न '

बहुत ही जल्द हमारे देश का स्वतंत्रता दिवस आने वाला है , जगह जगह तिरंगा फहराया जायेगा , स्कूलों में मिठाई बांटी जाएगी , ऍफ़ .एम् . और चैनलों पे देशभक्ति के गीत गाए जायेंगे , लगेगा की सचमुच हम बहुत देशभक्त देश में रहते है | लगता है की सारा देश त्याग, शांति और खुशहाली के तीन रंगों में रंग चुका है | मगर अगले दिन सब खत्म , रिश्वतखोर अपने धंधो पे फिर चले जायेंगे , भ्रष्ट सरकार और नेता अपनी काली करतूतों को फिर और जोर शोर से अंजाम देने लगेंगे , चोरी ठगी और कालाबाजारी फिर शुरू हो जाएगी | गन्दी राजनीती के चलते शहर के गुंडों से लेकर , जंगलों के आदिवासी सभी को इस्तेमाल किया जाने लगेगा | अंकल की गुलामी के चलते nuclear deal से लेकर सारी छुपी और खुली नीतियाँ बनने लगेंगी | क्या कभी हम आजाद हुए थे ? नहीं हमारी मानसिकता हमेशा से गुलाम थी और है | कभी हम अंग्रेजों के गुलाम थे , कभी मुगलों के तो कभी ducth , और फ्रांसीसियों के , कभी अपने चुने हुए नेताओं के | और तो और आज भी हम कहीं कहीं आर्थिक रूप से विकसित देशों के गुलाम है | क्या बात है की ये कमबख्त गुलामी छूटती नहीं , बड़े से बड़ा आदमी हो, कही ना कही

"अँधेरे "

"अँधेरे " "मै अँधेरे में ही छिप के रोया करता हूँ रौशनियाँ गम छुपाने का सबब बन जाती है बहुत मुमकिन है की हँसते होंगे , लोग बहुत मेरी रफ़्तार पे जख्मो की मेरे, याद भला किसे आती है मै किस्सा कोई आसान नहीं जिसे लोग यूँ ही समझ पायें सुन सको तो सुनना कभी अपनी हर साँस भी दास्ताँ-ऐ-दर्द बयान कर जाती है "

" जिंदगानी में है वो "

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"जिंदगानी में है वो " "इक खिलता है गुल , कुछ इस तरह जिंदगानी में है वो रह-रह के महके राहो में मेरी मानो गुलाबों का अर्क हो यूँ तो आदत नहीं , मुझको रेशमी राहों की बस इक मखमली संदल सी है वो कुछ मदमाती सी इक लहर कुछ सब्जबाग सा हसीं इक मंज़र इक ऊंची पहाड़ी पर बादल को चूमती ओस में भीगी हरियाली है वो मुझको तो पता भी नहीं आखिर है क्या बस मेरी खुशहाली की , कहानी है वो इक खिलता है गुल, कुछ इस तरह जिंदगानी में है वो बड़ी आफतों में खुद को संभाला है ,उम्र भर तन्हाईयों में डूब कर , ख़ुशी को तलाशा है उम्र भर जाने क्या है , कोई अँधेरे घर में चुपके से आती धूप है वो या मेरे खवाबों की हकीकत या मेरे मनचाहे रंगों से भरी तस्वीर है वो जो भी हो मेरी सबसे बड़ी हसरत है वो इक खिलता है गुल ,कुछ इस तरह जिंदगानी में है वो " (अनिल मिस्त्री)

"अधूरी सी बात"

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“अधूरी सी बात “  "जाने क्यूँ अधूरी  सी है , पूरी हर बात भी   सदा ना पहुँचती उस तक , शायद अपने किसी जज़्बात की   यूँ तो हर गलत सजा बन के सामने आ ही जाता है   जीती नहीं मगर हमने कोई बाजी, सही अलफ़ाज़ की  किस्मत के ही हवाले रहे अक्सर दिन अपने   हालत बद भी और बदतर भी   तब यूँ सोचा की शायद अब गर्दिश सी है सितारों पे अपने   जाने क्यूँ मगर वो रौशनी नहीं दिखती आज भी   कौन कहता है की ख्वाब सिर्फ मेहनत से सच हुआ करते हैं   ये दुनिया गुलाम है ,हथेली की लकीरों के मेहराब की  कहता है दिल बस चला चल राहों पे यूँ ही   ना डर रेगिस्तानो से , और ना तमन्ना कर सब्ज बाग़ की  यूँ तो लोग चाँद पे बस्तियां बसा चुके   जमींतो क्या आसमान को भी अपना बना चुके   मगर हो के भी सब अपना ,  झूठी है दुनिया ये आज की   और हर मुकम्मल ख्वाब में भी   मौजूदगी है , कहीं ना कहीं, इक अधूरी सी बात की " (अनिल मिस्त्री)

मेरा नया लेख नवभारत पर

मेरा नया लेख नवभारत पर http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/6158503.cms

"सितारों के पार"

"सितारों के पार आज , हम चलें कुछ इस कदर के हर शब् , रौशन हो जाये नूर से हमारे मुफलिसी में शिकायत नहीं होती कभी किसी को किसी से करो कुछ ऐसा की इश्क में हर लम्हा गम का हो जाए ज़िंदगी से दूर हमारे"

"खुद को पाना"

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अक्सर हम खुद से दूर हो जाते हैं , अपने काम में , अपनी पढाई में , अपने जिन्दगी जीने के रास्तो और उसपे अपनी जिन्दगी की गाडी चलने की धुन में भूल जाते है की , हम कैसे है, क्यों हैं ,और हमारी असल ख़ुशी क्या है ? कभी - कभी अपने सपनो और हकीकत की कशमकश और उस पर अपने अधूरे सपनो के ढेर और उससे मिलने वाले दर्द , हमें खुद से और दूर कर देते हैं . उस पे भी जबरदस्त प्रतियोगिता वाला आज का वक़्त , हमें और ज़िंदगी से दूर कर देता है . इसलिए कुछ ना कुछ ऐसा होना चाहिए जो , हमें खुद से दूर ना होने दे . मसलन कोई साज बजाता है , कोई तस्वीरें बनता है , कोई हवाओं में उंगली की नोक से अपने ख़्वाबों के महल बनता है , कहे तो एक अजीब दुनिया में जीने की कोशिश करता है , उस वक़्त उस ख़ुशी को वो शायद किसी को समझा नहीं सकता , मानो गूंगे का गुड हो , जिसे वो किसी से कह नहीं सकता मगर अन्दर ही अन्दर खुश होता है . ज़िंदगी बड़ी उलझी हुई चीज़ है , ख़्वाबों का अधूरापन उनके पूरे होने में भी शामिल रहता है . चाहे आप कुछ भी कर ले , कुछ भी पा ले , मगर मन की ख़ुशी खुद को पा लेने में ही मिलती है . अकसर औरों की तरह जीने की कोशिश में भ

"बारिश की दिल्ली वालो से दुश्मनी "

बारिश की दिल्ली वालो से दुश्मनी जाने क्या बात है की दिल्ली के आस पास हिमाचल और उत्तरांचल जैसे खूबसूरत राज्यों के बावजूद , बारिश सब जगह होती है मगर दिल्ली प्यासी ही रह जाती है ? कभी हलकी सी बारिश होती भी है तो मिडिया ऐसा हल्ला करता है और सड़कों पे ऐसा जाम लग जाता है की , बारिश रूठ के चली जाती है . कुछ लोग कहते है की दिल्ली में सबसे ज्यादा पापी भरे पड़े है शायद इस लिए ही दिल्ली में बारिश नहीं होती , ये कारण भी सही लगता है क्योंकि , सारे बड़े नेता , राजनेता और भ्रष्ट नेता यही तो रहते हैं . जितना बड़ा नेता उसके दामन पे उतना बड़ा दाग . क्या करे प्रजा तंत्र होता ही ऐसा है. फिर चाहे बात भोपाल गैस काण्ड में मरने और यातना भोगने वाले लाखों लोगों की हो या बोफोर्स काण्ड हो या कोई और राजनैतिक घोटाला , सजा तो दिल्ली को ही भुगतनी पड़ती है. मंत्री जी कहते है की दिल्ली वाले महंगाई झेल सकने में सक्षम है , कोई उनसे कहे की कभी एक बार जरा दिल्ली की सड़कों में कूड़ा बीनने वालो या सिग्नल पे भीख मांगने वाले बच्चों से मिल कर आये , तो पता चलेगा की कितने दिल्ली वाले महंगाई की मार झेलने की तैयार है ? ऐसा लगता है सरकार

"आई . टी .प्रोफेशनल की व्यथा "

"किससे कहें हम व्यथा हमारी स्वचालित डिब्बे के सामने बैठ सींचते अपने सपनो की फुलवारी चंद बंद ठंडी दीवारों में सर्वेरों से उलझते , चलती जीवन की गाड़ी किससे कहें हम व्यथा हमारी इक समय था जब मन मदमस्त पंछी था नीला अम्बर , सौम्य सवेरा था अब तो रचना क्या कल्पना भी होती बाजार की मारी और अति अल्प समय में होती अनगिनत युद्धों की तैयारी किससे कहें हम व्यथा हमारी इक पल को भी क्षणिक ना माना जाता यहाँ पे रहना हो इस दौड़ में तो गति बढ़ाना जहाँ में चंद उँगलियों की खट पट में छिपी होती सुनहरे या सुलगते भविष्य की कथा सारी किससे कहे हम व्यथा हमारी अनगिनत गणितीय गणनाओं में सोच से भी तेज भागती , तकनीक हमारी याद नहीं दिन रैन यहाँ पे बस स्वचालित सी होती सोच हमारी क्या दीपावली क्या होली सब, समझदार बक्सों के साथ क्या रिश्ते , क्या प्रेम इस जगत में हर दृश्य , बस इक मूषक की चटक के बाद क्या प्रेम क्या रास क्या रंग क्या संगवारी सोशल नेट्वोर्किंग के नाम पे विरक्त होती , ये दुनिया सारी बालक होते जाते समझदार ,समय से पूर्व स्नेह , प्रेम , छल , वर्तमान का हो गया अभूतपूर्व ना दिखता बचपन , ना मिलती सरलता की छाप हमा

"तश्तरी के चावल "

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"हर आहट पे नजरें हमारी दरों पे टिक जाती रही बस वो ना आये जिनका हमें इंतज़ार था यु तो छानी हैं ख़ाक बहुत सी राहों की मगर बस वो राह ना मिली जिससे लिपट के मिट जाने का ख्वाब था हर दरों दीवार पे जा के देखा, हर तस्वीर में उनको तलाश के देखा निगाहों से अपनी ये जमना बदलते देखा अपने बाग़ की हरियाली सा कही आलम ना था कुछ धीरे से कानो में रस घोल के चले जाते रहे वो शायद इकरार-ऐ-इश्क ही कर जाते रहे वो बहुत परोसे हैं ज़माने ने पकवान सामने हमारे मगर मेरे घर की तश्तरी के चावल सा कहीं स्वाद ना था"

"सूरत-ऐ-हाल "

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"वो सूरत-ऐ-हाल कहता है मुझसे  क्या जिंदा हैं वो हो के जुदा हमसे   कुछ समन्दर है , कुछ दरिया भी   कुछ आस्मां सा है ख्यालों में अपने   रंग तो बहुत बिखरे हैं ज़माने में   हर रंग मगर जुदा है , तुम्हारे रुखसारों से   यूँ तो कहते हो की चले जाओ गम ना करेंगे   इक दिन भी गर जो ना मिले   लिहाफ तकियों के भीगते हैं, अश्कों से ||  वो सूरत-ऐ-हाल कहता है मुझसे   क्या जिंदा हैं वो हो के जुदा हमसे   इक नजर भर के देखा था उनको  कभी समंदर के इक छोर पे   वो सैलाब नहीं था बड़ा दिल के समंदर से   इक बुझती सी ताम्बई धूप में , वो दामन समेटती तुम इक वो शाम थी , की ,  नींदे ही रूठ गयी ,अपनी पलकों से   ना घबराना , ना शर्मना, ना रूठना , ना मनाना   अजीब है किस्सा मोहब्बत का अपनी   बस ठंडी रेत पर,  उडती जुल्फों के साए में तेरा चलना   और पाना तुझको मेरा क़दमों के निशानों से   वो सूरत-ऐ-हाल कहता है मुझसे   क्या जिंदा है वो हो के जुदा हमसे   कुछ सीने से समन्दर के  दूर , बादल बरसता है   हो के करीब भी मिलने को तरसता है   आज तरसता है ये समन्दर नीला   वो बादल लग जाए सीने से   वो सूरत-ऐ-हाल कहता है मुझसे   क्य

"कल्पना "

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"इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है  मेरी सर्द गर्म सुर्ख गालों पे है ठहरी   तेज़ हवाओं में सिमट जाती जब,  नारियल के पेड़ों की पत्तियां और पीछे से उनके ,  जब नज़र आती, चन्द्र-ज्योत्स्ना   कुछ ऐसी ही लगती वो,  आंचल को समेटे ,  स्वयं रूप-प्रहरी   इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है मेरी  ... वो स्याह रात्रि सी कनखियों में,  विस्मय भरे बिरला ही हो कोई,  जो उस पे ना रीझे जाने कैसी रचना वो ,  अद्भुत अचरज से भरी   इक भीगी सी कोरी कल्पना है मेरी .....  वो अबोध , रूप से स्वयं के शायद ,  कभी , आतुर बड़ी , किताबों में कुछ सूखे पुष्प ढूंढती कभी ,  खो चुकी सुख चैन की कल्पनाओं में खुद को   हो राधा जैसे कुञ्ज-बिहारी के आलिंगन में लिपटी   इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है मेरी ना दुःख , ना क्षोभ का कोई चिन्ह बस मदमाती , खनकती , चंचलता से भरी सरलता , मानो , मुस्कान हो , शिशु जैसी ना मोह कल का , ना चिंता कल की इक वर्तमान का जीवन क्षणिक , मधु सा ऐसे सरल , मदमस्त रुपहले जीवन की कल्पना है मेरी इक भीगी सी कमसिन कोरी कल्पना है मेरी "

"गलत "

"सोचा था की धमाकों की भीड़ होगी क़दमों में हमारे सैकड़ों सैलाबों की ताक़त होगी इरादों में हमारे चल के आज मीलों दूर लगता है आखिर क्या पाया , हमने अपना दिल जला के जाने कहाँ, कब, क्या गलत हुआ मालूम नहीं मंजिल खो गयी मगर, मंजिल की राहों में आ के "

"हादसों का सफ़र "

"ये ज़िंदगी इक सफ़र है हादसों का कई संगीन, मगर कुछ हसीं भी हैं ये आरामतलबी का शौक जायज नहीं , मालूम है मुझको दुनिया जीतने की मगर नहीं कोई वजह भी है मै वक़्त काटता नहीं यूँ ही सोकर अपने हरम में इक ख्वाब बुनता हूँ होकर सबसे जुदा भी तलाशता हूँ मै रोज़ खुद को वो बाकि कहीं मेरी खुशनसीबी भी है लगता है कभी की भूल गया राह अपनी तपिश भरी गर्म राहों पे मेरी शायद उनकी जुल्फों की छांव जमी भी है तमन्ना तो की थी बड़ी उनकी के शायद वो लबों की सुर्खी से ज़िंदगी में हमारी रंग भरेंगे बेरंग तो नहीं अब मगर सुर्ख लहू से अब तो हवा रंगीन भी है ये ज़िंदगी इक सफ़र है हादसों का कई संगीन , मगर कुछ हसीं भी हैं "

"परछाई"

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"मुझको उनकी हर बात याद आती है जो गिरे और उठे कभी राहों में साथ दबी-दबी सी इक आवाज़ सुनाई आती है मै तो चलता ही रहा अपनी धुन में अक्सर ज़िंदगी बस कभी उखड्ती कभी दबती राह नज़र आती है खो चुका मै खुद को ना जाने कब दिल की पनाह में कहीं मगर छुपा है ख्याल-ऐ-रब दिल करता है फिर से चलूँ उस गली में कोई अपना नहीं जहां , मगर हर दीवार पे अपनी परछाई नज़र आती है "

"Soorat"

"Soorat" 1."kuchh soorat hi teri aisi hai ki, teri barat janaza apna lagti hai kuchh adat hi apni aisi hai ki ,janaza bhi apna tujhko barat nazar ata hai wo khayalon me rahne walo ki talab hi kharab hai ke chamakta chehra hi tera, band gali me aftaab nazar ata hai" 2. "badi katil soorton ke deewane hue aaj kal hum bhi ghar se apne begane hue wo jagah paak unche dil ki meri naa samajh aayi kabhi katil sooraton ko ik andheri see raat me fir hum parwane hue"
1. "ye raat kuchh yaad dilati hai aksar soch kar guzre waqt ko rulati hai aksar wo chaand to to saare aasmaan me baitha hai baahen failaaye kya ik katra us chandni ka kabhi, girta hai mere bhi ghar par" 2. "kho chuka mai khud ko , khud ki talaash me ek kitaab hai ye zindegani har naye panne se juda hai, pichhli kahani sabse meethee yaad mere maidaani shahr ki naa koi waadi , naa koi samandar bas mohbbaton ki hai ye hawa diwani har shakhs hai yahan apna dost bhi apna, dushman bhi apna aab bhi apna, hawa bhi apni, wo chalta, girta mera apna bachpan wo bhagti ,khelati meri rawani wo samjhna mera chaand ko, wo narm ujli tapish aaftaab ki wo pakki see chamakti sadak aur jazbaaton ki ek lambi kahani wo har pahla waqya zindegi ka har fiza jaise hai saathi mere har ahsaas ki karta hai aksar dil bahut, us mitti se lipat jaane ko rok dene ko waqt ko aur simat jaane ko laaun kaha se wo alfaaz jo bayaan kar sake meri mohbbat ik baar khuda tu bhi sun le, dil ki dua lipta de us mitti