"दरस"

१."उनकी निगाहों में आज हमने , इक फ़साना देखा है बिखरी है अपनी जिन्दगी, मगर, इक मुक्कम्मल जमाना देखा है अपने ग़मों की शिकायत नही मुझको खुदा से उनके अश्कों से हमने , मुस्कुराना सीखा है " 
२। "इक दरस का उनके,
 ज़माने से इंतज़ार है 
बदले हैं चेहरे वक्त ने, 
हजारों उस हमनशीं से हमें प्यार है 
छुपती है हकीकत ज़माने की, उनके नर्म रुखसारों से 
होती है दिल्लगी बेरहम , अक्सर हजारों से 
जाने फ़िर भी दिल क्यों कहता है के ये जूनून नही बेकार है 
बस इक दरस का उनके, ज़माने से इंतज़ार है "
(अनिल मिस्त्री)

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